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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका० 0 ६ ० ३ सं० २ जीवकर्म निरूपणम् प्रयोगश्च । इत्येतेन द्विविधन प्रयोगेण कर्मोपचयः प्रयोगेण, न विस्रसया, तत् तेनार्थेन यावत्-नो विस्त्रसया, एवं यस्य यः प्रयोगः यावत्-वैमानिकानाम् ।।मु०॥२ ___टीका-'वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं पयोगसा, वीससा ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! वस्त्रस्य खलु पुद्गलानाम् उपचया-वृद्धिः किम प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण ? आहोस्वित् विस्त्रसया स्वभावेन, पुरुपव्यापारमन्तराऽपि वचनप्रयोग और दूसरा कापप्रयोग (इच्चेएणं दुविहेणं पओगेणं कम्मो. वचए पओगसा णो वीससा) इन दो प्रकार के प्रयोगों से कर्म का उपचय विकलेन्द्रिय जीवों के होता है अतः वह स्वाभाविकरूप से नहीं होता है (से तेणडेणं जाव णो वीससा) इस कारण हे गौतन ! मैंने ऐसा कहा है जीवों के कर्म का उपचय यावत् स्वाभाविकरूप से नहीं होता है (एवं जस्स जो पओगो-जाब वेमाणियाणं) इस तरह जिस जीव के जो प्रयोग हो वह उस तरह से यावर वैमानिक देवों तक कहना चाहिये। ____टीकार्थ-सूत्रकार इस सूत्र द्वारा वस्त्रपुरलोपचय के दृष्टान्त से जीव और कर्मपुतलों के उपचय का प्रतिपादन कर रहे हैं-इसमें गौतम ने प्रभुसे ऐसा पूछा है कि (वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचये किंपयोगला वीससा?) हे भदन्त ! वस्त्र के पुद्गलों का जो उपचय-वृद्धि होता है, वह क्या प्रयोग से-पुरुषप्रयत्न से होता है या स्वाभाविकरूप से होना (वइप्पओगे, कायप्पओगे य )(१) क्यनया भने (२) यप्रयोग, ( इच्चेएणं दुविहेणं पओगेणं कम्मोवचए पओगसा णो वीससा) मा प्रयोगथी विसन्द्रिय છને કર્મને ઉપચય થાય છે તેથી સ્વાભાવિક રૂપે તેમને કર્મને ઉપચય થતું नथी (से तेण ट्रेणं जाव णो वीससा) गौतम! ते राणे में मेनु छे है ७वान प्रयोगथी भनी उपयय थाय छ, स्वाभावि ३३ थता नथी. (एवं जरस जो पोगो-जाव वैमाणियाणं) मा शत २ ना रे प्रयोग डाय, તે પ્રગથી તે જીવ કર્મને ઉપચય કરે છે. વૈમાનિક દેવે પર્યન્તના જીવોના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવું. ટીકાથ–સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં વસ્ત્રના પોપચયના દષ્ટાન્ત દ્વારા જીવ અને કમ્પલેના ઉપચયનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને भी प्रश्न पूछे छ है (वस्थस्स णं भंते ! पोग्गलोषचये किं पयोगसा वीसमा ?) હ ભદન્ત ! વસ્ત્રના પુદ્ગલેનો જે ઉપચય (જમાવટ, વૃદ્ધિ) થાય છે, તે શું પ્રયાગથી (પુરુષ પ્રયત્નથી) થાય છે, કે સ્વાભાવિક રીતે થાય છે? એટલે કે પુરુષ પ્રયત્ન વિના થાય છે?
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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