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________________ प्रमैयबन्द्रिका टो० श० ६ उ० १ ० १ वैदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम् ७७९ विहितानि विपरिणामितानि स्थितिघात-रसघातादिभिः विपरिणामं प्रापितानि, क्षिप्रमेव झटित्येव विध्वस्तानि भवन्ति, एतैश्च विशेषणैः सुविशोध्यानि, इत्युक्तम् । श्रमणानां महावेदनत्वाऽल्पवेदनत्वे आह-'जावइयं तावइयंपि ते वेयणं वेएमाणा महानिज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति ' ते श्रमणनिर्ग्रन्थाः यावतिकां तावतिकामपि यावत्तावत्परिमितामपि अल्पां बहीं वा वेदनां वेदयमानाः महानिर्जरा, महापर्यवसानाश्च भवन्ति सर्वकर्मणां क्षपितत्वेन महानिर्जरस्वापादनेन सकलकर्ममें से उसका रंग यहुत ही जल्दी धोने पर निकल जाता है क्यों कि उसके प्रदेशों में अत्यन्तरूप ले संसक्त नहीं होता, उसी प्रकार वे कर्म भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्थितिघात, रसघात आदि रूप से विपरिणाम को वहां स होते रहते हैं-अतः वे सत्ता से रहित बनकर शीघ्र ही कटे हुए वृक्ष को सह आत्मा से पृथक् हो जाते हैं । इन विशेषणों बारा सूत्रकार ने यही प्रकट किया है कि जो ऐसे असाररूप कर्म होते है वे सुविशोध्य होते हैं। इसी कारण वे श्रमण निर्ग्रन्थ (जावइयं ताव. इयं पि ते वेयणं वेएमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति) थोड़ी बहुत किसी भी प्रकार की चाहे वेदना को भोग रहे हो तब भी महा. निर्जरावाले और महापर्यवसानवाले होते हैं-तात्पर्य कहने का यह है कि सम्यग्दर्शन के हो जाने पर पदार्थ का यथार्थ बोध उनकी आत्मा में हो जाता है-अतः वे अल्प वा महावेदना को भोगते हुए भी उस अवस्था में रागद्वेषरूप कलुषित परिणामवाले नहीं बनते हैं क्यों कि उन्हें यह રાગથી રંગેલા વસ્ત્રની જેમ શિથિલ આદિ વિશેષણોવાળાં હોય છે. જેવી રીતે ખંજન રાગથી રંગેલા અને ધોતાની સાથે જ તેને રંગ સુગમતાથી દૂર કરી શકાય છે, કારણ કે તે રંગ તેના પ્રદેશમાં અધિક રૂપે સંસક્ત હોતે નથી, એજ પ્રમાણે શ્રમણ નિર્ચના કર્મ પણ સમ્યગ્દર્શનના પ્રભાવથી સ્થિતિઘાત, રસઘાત આદિરૂપે વિપરિણામને પ્રાપ્ત કરતાં રહે છે તે કારણે તે કર્મો સત્તાથી ૨હિત બનીને જલદીથી કપાયેલા વૃક્ષની જેમ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. આ વિશેષણ દ્વારા સૂત્રકારે એજ વાત પ્રકટ કરી છે કે તેમનાં તે શિથિલીકૃત કર્મો સુવિશેષ્ય હોય છે. मे से श्रम निथ (जावइय तावइय पि ते वेयण वेएमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवति ) माछी पधारे, गमे ते १२ व. નાને ભેગવતા હોય છતાં પણ મહાનિર્જરાવાળા અને મહાપર્યવસાનવાળા
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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