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________________ भगवतीसो रिन्द्रियसद्भावात् रविकिरणादिसम्पर्के दृश्यार्थाववोधहेतुत्वाच्छुभाः पुगलाः; रविकिरणादिसम्पासावे तु अर्थावबोधाजनकतया अशुभाः पुद्गलाः भवन्ति, शुभोऽशुभश्च पुद्गलपरिणामो भवति ! ' से तेणठेणं' तत् तेनार्थेन चतुरिन्द्रियाणां कदाचित् प्रकाशोऽपि, अथ च कदाचिद् अन्धकारोऽपि भवतीत्यर्थः । एवं जावमणुस्साणं' एवं चतुरिन्द्रियवदेव यावत्-मनुष्याणाम् अपि कदाचित् प्रकाशा, कदाचिच्च अन्धकारो भवति, यावत्करणात्-पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकादीनां संग्रहणं कर्तव्यम् , तथा 'वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा-अस्मुरकुमारा' वानव्यचौइन्द्रिय जीवों के पुद्गल शुभाशुभ दोनों प्रकार के होते हैं अतः जब सूर्य किरणों का संपर्क होता है तब वे पुद्गल उन्हें दृश्य अर्थ में कारण पड़ते हैं अतः वे शुभ पुगल हैं और जब रवि किरणों का संपर्क नहीं होता है तब वे पुद्गल दृश्य अर्थ के ज्ञान के अजनक होते हैं-इस कारण अशुभ कहे गये हैं। और इसी से पुद्गलों का परिणमन यहां शुभ और अशुभ होने रूप प्रकट किया गया है। (से तेणष्टेणं) इस कारण हे गौतम ! चौइन्द्रिय जीवों के सप्रकाश सांधकार होने के विषय में मैंने ऐसा कहा है । ( एवं जाव मणुस्लाणं) चौइन्द्रिय जीवों की तरह से ही यावत् मनुष्यों में भी कभी प्रकाश विशिष्टता रहती है, तो कभी अंधकार विशिष्टता रहती है। यहां यावत् पद से पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनि कादि जीवों का ग्रहण हुआ है। (वाणमंतर जोहस-माणिया-जहाअसुरकुमारा) जिस प्रकार के असुरकुमारों को सप्रकाश प्रकट किया है (चउरि दियाणं सुभासुभाय पोग्गला सुभे 5 सुमे य पोग्गलपरिणामे) यतुरिन्द्रिय જેનાં પુલ શુભ પણ હોય છે અને અશુભ પણ હોય છે. તેથી જ્યારે તેમને સૂર્યનાં કિરણેને સંપર્ક થાય છે, ત્યારે તે પુલે તેમને દશ્ય પદાર્થનું જ્ઞાન કરાવવામાં કારણભૂત બને છે. તેથી એવાં પુલને શુભ કહ્યાં છે. પણ જ્યારે સૂર્યનાં કિરણોને તેમનો સંપર્ક થતો નથી, ત્યારે તે પુલે દૃશ્ય વસ્તુનું જ્ઞાન કરાવી શકતાં નથી, તેથી તેમને અશુભ કહ્યાં છે. અને તે કારણે જ અહીં પુલના પરિણમનને શુભ અને અશુભ બને રૂપે પ્રકટ કરવામાં भाव्यु छ. ." से तेणटेण" है गौतम! ते री में से छ ચતુરિન્દ્રિય જીવો પ્રકાશ યુક્ત પણ હોય છે અને અધિકાર યુક્ત પણ હોય छ. " एवं जाव मणुस्साणं " यतुरिन्द्रिय वानी म मनुष्य यय-तनाव ध्यारे प्रश युद्धत मन भ्या२४ मध२ युत हाय छ मही 'जाव' (પર્યત) પદથી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ આદિ ને ગ્રહણ કરવાના છે. (पाणमंतर नोइस, बेमाणिया-जहा अमरकमारा) की शत भावना,
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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