SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 694
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमेयचन्द्रिका टीका २० ५ उ० ८ सू० ३ जीवशेदवृद्धिदान्यादिनिरूपणम् ६७३ . कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तं निरुपचय-निरपचयाः भवन्ति ? भगवानाह-- 'गोयमा ! सव्वद्धं ' हे गौतम ! सर्वाद्धा सर्वकालपर्यन्तं जीवाः निरुपचयनिरपचया भवन्ति, जीवानां सर्वकालावस्थितत्वात् , ' गौतमः पृच्छति-'नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं सोवचया १ हे भदन्त ! नैरयिकाः खलु कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तं सोपचया भवन्ति ? भगवानाह -- गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उकोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं' हे गौतम ! नैरयिका जीवा जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्पण आनलिकाया असंख्येयभागम् सोपचया भवन्ति । गौतमः पृच्छति- केवइयं कालं सावचया ? ' हे भदन्त ! नैरयिकाः कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तम् सापचयाः भवन्ति ? भगवान् आह-‘एवं चेव ' (सव्वद्ध) सर्वकाल पर्यन्त जीव उपचय और अपचय से रहित होते हैं। क्योंकि इनकी स्थिति सब काल में रहती है। अब गौतम स्वामी प्रभु से ऐसा प्रश्न करते हैं कि (नेरझ्याणं भंते ! केवइयं कालं सोवच. या) हे भदन्त ! नारक कितने काल तक उपचय सहित होते है ? इसके उत्तर में प्रभु उन्हें समझाते हैं कि-गोयमा) हे गौतम ! (जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असखेजहभाग) नारक कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक आवलिका के असंख्यातवें भागतक उपचय सहित होते हैं। (केवइयं कालंसावचया) तथा हे भदन्त ! नारक जीव कितने कालतक अपचय सहित होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं ( एवं चेव) नारक जीव कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक आवलिका के असंख्यातवें भागतक अपचय सहित होते हैं। तथा (केवयं कालं सोवचय-सावचया) हे भदन्त । Sत्तर-(गोयमा ।) गौतम ! “ सव्वद्ध" स ण पर्यन्त | ઉપચય-અપચયથી રહિત રહે છે કારણ કે તેમનું અવસ્થાન (અસ્તિત્વ) બધા કાળમાં હોય છે प्रश्न-(नेरडयाण मते ! केवइय काल सोवचया १) महन्त ! ना२४ છો કેટલા કાળ સુધી ઉપચયવાળા રહે છે ? उत्तर-" गोयमा ! " गौतम ! (जहण्णेण एक समय उक्कोसेण आवलियाए असं खेज्जइभाग ) ना२। माछामा । मे समय सुधी भने વધારેમાં વધારે આવલિકાના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણે કાળ સુધી ઉપચય युत २९ छे. "केवइयं कालं सावचया" 3 महन्त ! ना२४ ७ मा सुधा मपयय युत २९ छ ? तेन। उत्तर मापता महावीर प्रभु ४ छ-"एवं चेव” ना२४ ७३१ माछामा माछा से सभय सुधी भने पधारेमा धारे આવલિકાના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ કાળ સુધી અપશ્ય યુકત રહે છે.
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy