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________________ ૬૭૨ भगवतीचे निरवचया' हे गौतम ! सिद्धाः खलु सोपचयाः वृद्धियुक्ता भवन्ति कर्मक्षयेण तत्रागमनात् , एवं निरुपचय-निरपचयाः-निरुपचया विरहकालमाश्रित्य वृद्धिरहिताः, निरपचयाः तत उद्वर्तनाभावात् , यथावस्थिता भवन्ति--इत्यर्थः, किन्तु नो सापचयाः ततः पुनरुद्वर्तनाभावात् , न वा सोपचय-सापचयाः युगपद् उपचया पचययुक्ता न भवन्ति, इति भङ्गद्वयं सिद्धेषु न घटते । प्रथमचतुर्थरूपं भगद्वयं घटते इति भावः, अत्र प्रथमचतुर्थरूपं भङ्गद्वयं स्वीकृतम् ।। गौतमः पृच्छति'जीवाणं भंते ! केवइयं कालं निरुपचय-निरवचया ? ' हे भदन्त ! जीवाः खलु निरुचचय निरवचया) सिद्ध वृद्धियुक्त होने के कारण सोपचय होते हैं इसका कारण यह है कि सिद्धावस्था में जीव कर्मों के क्षय हो जाने से ही आता है निरुपचय ये इस कारण से कहे गये हैं कि विरहकाल को लेकर ये वृद्धि से रहित कहे गये हैं तथा जो जीव इस अवस्था में पहुँच जाता है फिर उसका वहां से उद्वर्तन होता नहीं है इस कारण ये निरपचय-यथावस्थिन कहे गये हैं। (नो सापचया, न वा सोपचय सापचया) ये दो भङ्ग सिद्धों में नहीं हैं। क्यों कि उनमें पहुँच कर जीव वापिस नहीं आता है, अतः वे सापचय नहीं है और एक साथ वे सोपचय सापचय नहीं होते हैं इस कारण वे तृतीयभङ्गवाले भी नहीं हैं। प्रथम और चतुर्थभङ्ग ये दो भंग इनमें घटित होते हैं । अब गौतम स्वामी पूछते हैं कि (जीवा णं भंते ! केवइयं कालं निरुवचय-निरवचया) हे भदन्त ! जीव कितने कालतक उपचय रहित और अपचय रहित होते हैं ? उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं (गोयमा) हे गौतम ! णो सोवचयसावचया, निरुवचय-निरवचया ) सिद्धीमा वृद्धि यती डावाथी તેઓ ઉપચય યુક્ત હોય છે, કારણ કે કમેને ક્ષય કરીને કેટલાક જીવે સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરનારે જીવ ફરીથી સંસારમાં જન્મ લેતું નથી. તે કારણે सिद्वानी सभ्याम घटा थत नथी. (नो सापचया, न वा सोपचयसापचया) આ બે ભાગોને સિદ્ધોમાં અભાવ હોય છે. સિદ્ધપદે પહેચેલે જીવ સંસારમાં ફરી જન્મ લેતો નથી, તે કારણે તેને અપચય ચુત કહી શકાય નહીં. વળી તેઓ એક સાથે ઉપચય–અપચય અનેથી યુકત હતા નથી, તે કારણે ત્રીજા ભંગને પણ તેમનામાં નિષેધ કર્યો છે. તેમને પહેલે અને ચે ભંગ લાગુ પડે છે, એટલે કે તેઓ ઉપચયથી યુક્ત હોય છે અને ઉપચય-અપચયથી રહિત હોય છે. प्रश्न-"जीवाणं भते ! केवइयं काल निरुवचय-निरवचया ?" હે ભદન્ત! જી કેટલા કાળ સુધી ઉપચય-અપચયથી રહિત રહે છે?
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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