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________________ દાદ भगवतीसुत्रे 9 अथ सप्रदेशमाह - ' जे दव्वओ सपरसे से खेत्तओ सिय सपरसे, मिय अपएसे ' यः पुद्गलः द्रव्यतो द्वचणुकादितया समदेशः, स क्षेत्रतः स्यात् कदाचित् समदेशः प्रयादिप्रदेशावगाहित्यात स्थान- कदाचित् अप्रदेशः, एक्मदेशावगाहित्वात्, एवं कालओ, भावओ वि ' एवम् उक्तरीत्यैव कालतो, भावतोऽपि विज्ञेयः । तथा च यः पुद्गलो द्रव्यतः समदेशः द्रयणुकादिरूपः स कालतः स्यात् कदाचित् समदेशः द्वयादिसमय स्थितिकत्वात् स्यात् कदाचित् अप्रदेशः एकसमय " रहता है उस हालत में यह भाव की अपेक्षा भी अप्रदेशी है और द्रव्य की अपेक्षा भी प्रदेशी है । (जे दव्वओ सपए से खेत्तओ सिय सपए से सिय सपए से ) जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा सप्रदेश है वह क्षेत्र की अपेक्षा सप्रदेश भी हो सकता है और अप्रदेश भी हो सकता है-जैसे कोई इणुकादिक स्कन्ध आकाश के द्वयादिक प्रदेशों में अवगाही होकर ठहरा हुआ है तो हम स्थिति में वह द्रव्य की अपेक्षा मप्रदेश होता हुआ भी क्षेत्र की अपेक्षा भी सप्रदेश है, और यदि वही ह्यणुकादि स्कन्ध आकाश रूप क्षेत्र के एक प्रदेश में अवगाहित होकर ठहरा हुआ है तो वह अप्रदेश है-हचादिक प्रदेशों से रहित है ( एवं कालओ भावओ वि) इसी तरह से जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा सप्रदेश है वह काल की अपेक्षा सप्रदेश भी हो सकता है और अप्रदेश भी हो सकता है जैसे कोई द्वयणुकादिक स्कन्धक जो कि द्रव्य की अपेक्षा से सप्रदेश है वह यदि द्व्यादि समय की स्थिति वाला है तो वह द्रव्य की अपेक्षा છે ત્યારે ભાવની અપેક્ષાએ પણ તે અપ્રદેશી હાય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ पशु प्रदेशी होय छे (जे दव्वओ सपएसे से खेत्तओ सिय सपएसे सिय अपर से ) ने युद्दस द्रव्यनी अपेक्षा सप्रदेशी होय छे, ते युद्ध क्षेत्रनी અપેક્ષાએ સપ્રદેશી પણ હાઈ શકે છે અને અપ્રદેશી પણ હાઇ શકે છે. જેમકે કાઈ એ અણુવાળા સ્કંધ આકાશના એ પ્રદેશેાની અવગાહના કરીને રહેલા હાય, તે એ સ્થિતિમાં તે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પણ પ્રદેશયુકતજ હાય છે અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ પ્રદેશયુકત હાય છે. પણ જો એ અણુવાળા સ્કંધ આકાશ રૂપ ક્ષેત્રના એક જ પ્રદેશની અવગાહના કરીને રહેલા હોય, તા તે अहेशोथी रहित हुशे. ( एवं कालओ भावओ वि ) मे प्रभा ने युगस દ્રવ્યની અપેક્ષાએ પ્રદેશયુકત હાય છે, તે કાળની અપેક્ષાએ પ્રદેશયુકત પણ હાઈ શકે છે અને પ્રદેશ રહિત પણ હોઇ શકે છે. જેમકે ફ્રાઈ એક એ અણુવાળા સ્કંધ કે જે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સપ્રદેશી છે, તે જો એ, ત્રણ દિ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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