SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 616
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टी० श० ५ ८० ८ ० ६ पुद्गलम्वरूपनिरूपणम् ५९७, भदन्त ! पुद्गलानां द्रव्यादेशेन, क्षेत्रादेशेन, कालादेशेन, भावदशेन सप्रदेशानाम्, अपदेशानाम् कतरे, कनरेभ्यो यावत्-विशेषाधिका वा ? नारदपुत्र ! सर्वम्तोकाः पुद्गलाः भारतदेशेन अप्रदेशाः, कालादेशेन अपदेशाः, असंख्येयगुणाः, द्रव्यादेशेन अप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, क्षेत्रादेशेन अपदेशाः असंख्येयमुणाः, क्षेत्रादेशेनैव समहोता है वह द्रव्य की अपेक्षा से नियम से प्रदेशसहित होते है । काल को अपेक्षा लेकर प्रदेशयुक्तता की भजना है । इसी तरह से भाव की अपेक्षा से भी भजनो जाननी चाहिये। जिस प्रकार से यह द्रव्य की अपेक्षा कथन किया है उसी प्रकार से काल और भाव की अपेक्षा से भी जानना चाहिये । (एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं दध्यादेसेणं खेतादेसेणं कालादेखणं भावादेसेणं सपएसाणं अपएसाणं कयरे कयरेहितों जाव विसेसाहिया वा) हे भदन्त ! द्रव्यादेश से, क्षेत्रादेश से, कोलादेश से और भादेश से प्रदेशसहित और प्रदेश रहित इन पुगलों के बीच में कौन पुद्गल किस को अपेक्षा यावत् विशेषाधिक हैं ? (नारयपुत्ता) हे नारदपुत्र ! (सम्वत्थो वा पोग्गला भावादेसेणं अपएसा) सब से कम वे पुद्गल हैं जो भाव की अपेक्षा अप्रदेश हैं। (कालादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा) काल की अपेक्षा जो पुद्गल अप्रदेश हैं वे इन पुलों की अपेक्षा असंख्यातगुणित हैं। (दवादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा) द्रव्य की अपेक्षा जो पुद्गल प्रदेश અપેક્ષાએ પણ અવશ્ય પ્રદેશ સહિત હોય છે, પણ કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ પ્રદેશયુકત પણ હોઈ શકે છે અને પ્રદેશ રહિત પણ હોઈ શકે છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે, એજ પ્રમાણે કાળ भने माanी अपेक्षा ५ सभा (एए सि णं भंते ! पोग्गलाण दव्यादेसेणं खेत्तादेसेणं कालादेसेणं भावादेसेणं सपएसाणं अपएसाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा) Hard! द्रव्यनी अपेक्षाम्मे, क्षेत्रनी अपेक्षा, अनी અપેક્ષાએ અને ભાવની અપેક્ષાએ પ્રદેશયુકત અને પ્રદેશ રહિત એવા આ પુલેમાંથી કયાં પુલ કોના કરતાં વધારે છે? (વાવ) કયાં પુલો કોના ४२di विशेषाधि छ ? (नारयपुत्ता !) ना२६पुत्र! (सव्वत्थोवा पोगला भावादेसेण अपएसा) २ पुगतो सावनी अपेक्षा प्रदेश २डित छ, त पुरो सौथी माछi छ (कालादेसण अपएसा असंखेज्जगुणा ) सनी अपे. ક્ષાએ જે પુલ પ્રદેશ રહિત છે, તેઓ તેના કરતાં અસંખ્યાત ગણુ છે, (दबादेसेण' अपएसा असंखेज्जगुणा) द्रव्यनी अपेक्षा या प्रदेश रहित
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy