SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ któ भवगती सूत्रे अवादीत् - यदि ते आर्य ! सर्व पुद्गलाः साधः, समध्याः, समदेशाः, नो अनर्घाः, अमध्याः, अपदेशाः, किं द्रव्यादेशेन आर्य ! सर्व पुद्गलाः सार्धाः समध्याः, सप्रदेशाः, नो अनर्धाः, अमध्याः, अप्रदेशाः, क्षेत्रादेशेन आर्य ! सर्व पुद्गलाः सार्धाः, तथैव, कालादेशेन आर्य ! तदेव, भावादेशेन आर्य ! तदेत्र, भी नहीं हैं । (त से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वासी ) तब उन निर्ग्रन्धीपुत्र अनागार ने नारदपुत्र अनगार से ऐसा 1. कहा- पूछा (जइणं ते अज्जो । सन्वपोग्गला, स. अड्डा, समज्झा, सपएसा, जो अड्डा, अमज्झा, अपएसा ) ये आर्य ! यदि आपकी मान्यता के अनुसार समस्त पुद्गल अर्धभागसहित हैं, मध्यभागसहित हैं और प्रदेश सहित हैं, वे अर्धभाग रहित नहीं हैं, मध्यभाग रहित नहीं हैं और प्रदेश रहित नहीं हैं (किं दब्वादेसेणं अज्जो सव्यपोग्गला स अड्डा समझा, सपएसा णो अड्डा, अमज्झा, अपएसा, खेत्ता देसेणं अज्जो ! सव्यपोग्लास अड्ढा, तहचैव ! कालादेसेणं अजो | तं चैव ? भावादेसेणं अज्जो तं चैव ? ) तो ऐसी जो आपकी मान्यता हैं सो क्या द्रव्यादेश - द्रव्य की अपेक्षा से है ? अर्थात् द्रव्य की अपेक्षालेकर ऐसा आप कहते हैं कि समस्त पुद्गल अर्धभाग मध्यभाग और प्रदेशसहित हैं, अर्धमध्य औरप्रदेश से रहित नहीं हैं ? या हे आर्य ! क्षेत्र की अपेक्षा लेकर आप ऐसा कहते हैं कि समस्त पुल अर्धभाग आदि सहित प्रदेश रहित होता नथी. ( तएण से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगार एवं वयासी ) त्यारे ते निर्थथीपुत्र अगुगारे नारहपुत्र अगुगारने या प्रमाणे छ्युं - ( जइणं ते अज्जो ! सव्व पोम्गला स अड्ढा, समझा, सपपसा, णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा ) हे भार्य ! ले आपनी मान्यता भुभ्ण समस्त પુદ્ગલે! અભાગ સહિત હાય, મધ્યભાગ સહિત હાય, પ્રદેશ સહિત હાય, અધ ભાગ રહિત ન હૈાય, મધ્યભાગ રહિત ન હાય અને પ્રદેશ રહિત ન હોય, ( कि दव्वादेसेण अज्जो सव्त्र पोगला स अड्ढा, समज्ज्ञा, सपएसा, णो अणड्ढा, भमज्झा, अपरसा, खेत्ता देसेण अन्जो ! सव्व पोग्गला स अड्ढा, तहचैत्र १ कालादेसेण अज्जो ! तं चेव ? भावादेसेण अज्जो ! त चेव १ ) तो हे भार्य ! આપ શું દ્રવ્યની અપેક્ષાએ એવી માન્યતા ધરાવેા છે ' એટલે કે શુ' આપ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ એવું કહેા છે કે સમસ્ત પુદ્ગલ અભાગ, મધ્યભાગ અને પ્રદેશ સહિત હાય છે, અધ, મધ્ય અને પ્રદેશથી રહિત નથી ? અથવા કે ,
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy