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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ०६ सू०१ कर्मविषये निरूपणम् गरहिता अवमनित्ता,अन्नयरेणं, अमणुम्नेणं अपीइकारएणं,असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलाभत्ता' तथारूपं श्रमणं वा ब्राह्मणं वा, हीलित्वा जन्मकर्ममर्मोद्घाटनपूर्वकमवहेलनां कृता,निन्दित्वा-कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनादरं कृत्वा खिसित्वा -हस्तमुखादिविकारपूर्वकमपमानं कृत्वा, गर्हित्वा-गुर्वादिसमक्षं दोपाविष्करणपूर्वक 'तिरस्कार कृत्वा, अवमान्य-अनभ्युत्थानादिना अपमानं कृत्वा, अन्यतरेण वहूनामन्यतमेन एकेन केनचित् अमनोज्ञेन अमजुलेन, अप्रीतिजनकेन अशन-पान '-खादिम-रवादिमेन प्रतिलाम्य लाभवन्तं कृत्वा ' एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ' एवम् उक्तरीत्या खलु जीवाः अशुभदीर्घायुष्कतायै वाद का.सेवन करके 'तहारूवं समण वा माहणं वा हीलित्ता, निंदित्ता, खिसित्ता, गरहित्ता, अवमन्नित्ता, अन्नयरेणं अमणुन्नेणं, अपीइकारएणं असणपाणखाइमसाइभेणं पडिलाभेत्ता' और तथारूप निरति चार पूर्वक संयम का पालन करने वाले श्रमण जनकी अथवा जो स्वयं हिंसा से निवृत्त हुआ दूसरों को " माहन " मत मारो ऐसा कहता है ऐसे माहण की अथवा जो ब्रह्मचर्य या कुशल अनुष्ठान को धारण 'पालन करता है ऐसे माहण का, उसके जन्म कर्म और मर्म का उद्घाटन करके अवहेलना करना, कुत्सित शब्दोच्चाारण पूर्वक दोषोद्धाटन करते हुए उसका अनादर करना, अपने हस्त मुख आदि को विकृत बनाते हुए उनका अपमान करना, गुर्यादि जनों के समक्ष उनके दोषों को प्रकट करते हुए उनका तिरस्कार करना उनके आने पर नहीं उठना इत्यादि तरह से उनका अपमान करना तथा चारों प्रकार के आहार में से किसी एक अमनोज्ञ, अप्रीतिकारक ऐसे अशन, अथवा पान आदि आहार द्वारा उन्हें लाभित करना, इत्यादि इन सब कामों के करमुसंवइत्ता,) 8 गौतम ! वानी डिसा शन, भृषावा (असत्य वाण) मालीन तहारूव समणं वा, माहणं वा, हीलित्ता, निंदीत्ता, खिंसित्ता, गरहित्ता, अवमाणित्ता, अण्णयरेणं, अमणुण्णेणं, अपीइक'रएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेसा,) तथा शुद्ध सयभनु पालन ४२नार श्रम भाडनी (२ पाते હિંસાથી નિવૃત્ત થયેલ છે અને બીજાને હિંસા ન કરવાનો ઉપદેશ આપે છે અને જે બ્રહ્મચર્ય તથા બીજા અનુષ્ઠાનું પાલન કરે છે તેને માહન કહે છે) અવહેલના કરે છે, તેમનો અનાદર કરે છે, તેમની નિંદા કરે છે, તેમને તિરસ્કાર કરે છે, તેમનું અપમાન કરે છે તથા ચારે પ્રકારના આહારમાંથી કેઈ એક અમને જ્ઞ, અપ્રીતિકારક અશન અથવા પાન અથવા ખાદ્ય અથવા સ્વાધ આહાર તેમને વહેવરાવે છે, એ જીવ અશુભ દીર્ધાયુને બંધ કરે
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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