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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ५ उ० ४ सू२ २ अन्यतीथिकवक्तव्यताकथनम् ३४५ वेयणं वेयन्ति' ते खलु माणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः, एवंभूतां यथाक्रमविहितकर्मनिवन्धनां वेदनां वेदयन्ति, अथ च 'जेणं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता, जहा कडा कम्मा णो तहा वेयर्ण वेयंति' ये खलु माणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः यथा येन क्रमेण कृतानि कर्माणि नो तथा तेन क्रमेण वेदनां वेदयन्ति, ' तेणं पाणा भूया, जीवा, सत्ता अणेवं भूयं वेयणं वेयंति' ते खलु प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्या अनेवं भृतां यथाकृतं कर्म न तथा भूतां वेदनां वेदयन्ति, __यता-नहि यत्क्रमेण उपार्जितं कर्म तत्क्रमेणैव सर्वकर्मवेदना भवति, आयुष्यकर्मणा विरोधापत्तेः, यतश्च दीर्घकालानुभवयोग्यस्यापि आयुष्यकर्मणोऽल्पीइस पाठ द्वारा प्रदर्शित की गई है। अथच- जेणं पाणा, भूया, जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा णो तहा वेयणं वेयंति' जो प्रोण, भूत, जीव सत्व जिस प्रकार से उन्हों ने कर्म किये हैं-जिस क्रम से कर्म का बंध किया है उस क्रम से वे उनकी वेदना का अनुभव नहीं भी करते हैं इस तरह तेणं पाणा, भूया, जीवो सत्ता अणेवंभूयं वेषणं वेयंति' वे प्राण, भूत, जीव, और सत्व अनेवंभूत वेदका को जैसा उन्हों ने कर्म किया है उस तरह की उनकी वेदना को नहीं भोगते हैं, क्योंकि ऐसा नियम तो है नही कि जिस क्रम से कर्म उपार्जित किया जावे उसी क्रमके अनुसार उसका फल भोगा जावे ! यदि ऐसा नियम माना जावेतो कर्म के भोगने में जो फेरफार होता है वह नहीं हो सकेगा! इसलिये यह भी मानना पड़ना है कि जिस प्रकार से कर्म का उपार्जन किया गया है उसी प्रकार से उन समस्त कर्मोकी वेदन नहीं भी होता है। देखो दीर्घ काल तक अनुभव करने के योग्य बांधे गये कर्म का एवंभूयं वेयणं वेयंति" मा सूत्रपा8 बारा ट ४२वामा मावी छे. तथा "जे गं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता जहा वडा कम्मा णो तहा वेयणं वेयंति" જે પ્રાણ, ભૂત, જીવ અને સત્વ, તેમણે જે કેમે કર્મને બંધ બાંધ્યા હોય, તે ક્રમાનુસાર વેદનાને અનુભવ કરતા નથી પણ એવાં પ્રાણુ, ભૂત, જીવ અને સત્ય અનેવભૂત વેદનાનું વેદન કરે છે, એમ કહેવાય છે. એજ વાત સૂત્રકાર " ते णं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेय नि" मा सूत्रपा द्वारा દર્શાવી છે. આ રીતે કેટલાક જીવો તેમણે કરેલાં કમને અનુરૂપ વેદનાનું વેદન કરે છે. જે ક્રમથી કમનું ઉપાર્જન કરાયુ હોય એજ ક્રમે તેનું ફળ ભોગવવું જોઈએ, એવો કોઈ નિયમ નથી. જે એવો નિયમ હે વાનું માનવામાં આવે તે કર્મને ભેગવવામાં જે ફેરફાર થાય છે તે થઈ શકે નહીં. તેથી એ વાત સ્વીકારવી જ પડશે કે જે પ્રકારે કર્મનું ઉપાર્જન કરાયું હોય એ જ भ७४
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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