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________________ ---- प्रमेन्द्रिका टीका श०५७०४०१२ अनुत्तरदेवविषयेप्रश्नोत्तरनिरूपणम् ३११ यत् खलु इहगतः अत्रस्थित एव केवली अर्थ वा, यावत्-व्याकरोति व्याख्याति व्यक्तीकरोति वा, यावत्पदेन पूवितं ज्ञेयम् ' तणुत्तरोव वाइया देवा तत्थगया. घेव समा णा जाणति, पासंति ?' १६ स्लु अर्थादिविषयं भगवतः व्याख्यानम् अनुत्तरौपपातिकाः देवाः तत्रस्थिताश्चैव अनुत्तरविमानस्थिता एव सन्तः जानन्ति, पश्यन्ति किम् ? . भगवानाह-'हंता, जाणति, पासंति, ' हे गौतम ? हन्त, सत्यं तत्रस्थिता एवानुत्त रवैमानिका अबस्थित केवलिनः अर्थादिव्याख्यानम् जानन्ति पश्यन्ति च, गौतमरतत्र कारणं पृच्छति-से केणटेणं जाव-पासंति !' हे भदन्त । तत् केनार्थेन कथं यावत्-पक्ष्यन्ति ? यावत्पदेन उपर्युक्तं सर्व संग्राहयम् ' भगवान तत्र कारणं प्रतिपादयति-'गोयमा! तेसि णं देवाणं अणंताओ मणोदध्ववग्गणाओ . लद्धाओ, पत्ताओ, अभिसमण्णागयाओ भवति' हे गौतम ! तेषां खलु अनुत्तर यावत् व्यक्त करते हैं-यहां यावत् पद से पूर्वोक्त पाठ ग्रहण किया गया है-(तं गं अणुत्तरोवाइया देवा) उस अर्थादि को अनुत्तरविमानवासी देव (तत्थ गया समाणा) वहीं अपने स्थान पर रहकर ही (जाणंति पासंति) क्या जान लेते हैं, और देख लेते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु' कहते हैं-(हंता जाणंति पासंति) हां, गौतम ! जान लेते हैं और देख लेते हैं। गौतम इस विषय में भी कारण जानने की इच्छा से पुनः प्रश्न करते हैं कि-(से केणष्टेणं जाव पासंति) हे भदन्त ! वे देव ऐसा किस कारण से यावत जान लेते हैं देखलेते हैं? यहाँ पर भी यावत्पद से पूर्वोक्त समस्त पाठ गृहीत हुआ है। उत्तर में प्रभु कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम! (तेसि णं देवाणं अणंताओ मणादव्यनग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति) उन देवों के अनરહેલા કેવળી ભગવાન, તેમના તે અર્થ. હેતુ, કારણ, પ્રશ્ન અથવા વ્યાકરણ (विशेष स्पष्टी५२६) नारे पास मापे छे, (तं गं अणुत्तरोववाइया देवा) ते अर्थ माहिन शुभनुत्तर विभानवासी । (तत्थगया समाणा जाणंति पासंति?) भने स्थान २डीन or mel श छ भने भी श छ ? उत्तर- (हंता जाणति पासंति) है, गौतम! मना विभानावासमा રહીને જ તેઓ તેને જાણી શકે છે એને દેખી શકે છે. प्रश्न-(से केणट्रेण जाव पासंति ) 3 महन्त ! ॥ २0 ने भने સ્થાને રહીને, આ મનુષ્ય લેકમાં રહેલા કેવલી ભગવાન દ્વારા અપાયેલા તેમના પ્રશ્નાદિના ઉત્તરે જાણુ-દેખી શકે છે ? तर- (गोयमा) हे गौतम! (तेसि ण देवाण अणताओ मणोदव्य वग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवति) ते वामे मन भनी
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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