SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ०४ सू०११ केवलीप्रणीतमनोपच निरूपणम् २२९ ___टीका--केवलिनोऽधिकारात् तद्विशेषवक्तव्यतामाह- केवली गंभंते!'. इत्यादि । केवली गं भंते ! पणीय मणं वा, बई वा धारेज्जा ?' गौतमः पृच्छति -हे भदन्त ! केवली केवलज्ञानी खलु निश्चितं किम् प्रणीतं शुभपरिणामतया परिणतत्वेन प्रकृष्टं मनो वा, प्रकृष्टं वचो वचनं वा धारयेत् ? व्यापारयेत् ? उपयुञ्जीत किम् ? । भगवान् आह-'हंता, धारेज्जा' हे गौतम ! हन्त, सत्यम् प्रकृष्टमनः, प्रकृष्टवचनं च अवश्यमेव धारयेत्, गौतमः पृच्छति-'जहाणं भंते ! केवली पणीयं मणं वा, वई वा धारेज्जा तंण घेमाणिया देवा जाणति, पासंति?" हे भदन्त ! यथा-यत् खलु केवलज्ञानी प्रणीतम् उत्कृष्टं-मनो वा, वचो वा धारउपयोग वाले हैं वे ही मानते हैं और देखते हैं (से तेणटेणं तं चेव) हम कारण हे गौतम ! मैंने पूर्वोक्तरूप से ऐसा कहा है। टीकार्थ-केवलज्ञानी का अधिकार चल रहा है, इस कारण सूत्रकार इस विषय में जो विशेषवक्तव्यता है उसे इससूत्र द्वारा प्रकट कर रहे हैं इसमें गौतम प्रभु से पूछ रहे हैं कि "केवली णं भंते पणीयं मण वा व वा धारेज्जा" हे भदन्त! केवलज्ञानी क्या शुभपरिणामरूप परिणत होने से प्रकृष्ट मन एवं वचन को उपयोग में लाते हैं ? इस के उत्तर में भगवान् कहते हैं- 'हंता धारेज्जा' हां, गोतम ! केवलज्ञानी प्रकृष्ट मन, वचन को अवश्य ही उपयोग में काम में लाते हैं । अब गौतम पुनः प्रभु से प्रश्न करते हैं कि- 'जहा णं भंते केवली पणीयं मणं वा, वई वा धारेज्जा, तेणं वेमाणिया देवा जाणंति, पासंति) हे તેમાંથી જે ઉપગ યુક્ત છે તેઓ જ કેવળી ભગવાનના પ્રકૃષ્ટ મન અને क्यनने को छ भने थे छे. (से तेणटेणं त चेत्र) गौतम ! ते रणे में २ भुराम ४यु छे. ટીકાઈ–કેવળજ્ઞાનીનું વિવેચન ચાલી રહ્યું છે, તેથી સૂત્રકાર તેમને વિષે જે વિશેષ નિરૂપણ કરવાનું છે તે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ કરે છે. ગૌતમ સ્વામી, भडावीर प्रभुने मेवा प्रश्न पूछे छ है (केवली णं भंते ! पणीय मण वा वह वा धारेज्जा १) है महन्त ! ज्ञानी शुशुम परिणाम ३५ परिणितिथी પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને ઉપયોગમાં લાવે છે? ___ महावीर प्रभु त उत्तर भापता छ-(हता धारेज्जा) , गौतम। કેવળજ્ઞાની પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને અવશ્ય ઉપયોગ કરે છે. 8-(जहाणं भंते ! पणीय मणवा, वई वा धारेज्जा, ते ण वेमाणिया देवा जाति पासंति ?) BR-d! ज्ञानी रे प्रष्ट मान मने क्यनन
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy