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________________ यद्रिका टीका शं०५ ० ४ सू०१ छद्मस्थशन्दश्रवणनिरूपणम् १९७ यथा खलु ' छउमत्थे मणूसे आरगयाई सद्दाई सुणेइ ' छद्मस्थो मनुष्य आराद् गतान् शब्दान् शृणोति णो पारगयाइं सहाई सुणेइ 'नो पारगतान् शब्दान् शणोति, 'तहणं भंते ! तदा खलु हे भदन्त ! केवली मणुस्से किं आरगयाई सदाई मुणेइ ! केवली केवलज्ञानी मनुष्यः किम् आराद् गतान् शब्दान् शृणोति ? णो पारगयाइं सदाइं सुणेइ नो पारगतान् शब्दान् शृणोति ? भगवानाह-हे 'गोयमा ! केवलीणं, आरंगयं वा ' हे गौतम ! केवली खलु आराद्गतम् इन्द्रियसमीपस्थंवा, . अयच पारगतं वा इन्द्रिय विषयातीतमपि,.' सव्वदूरमूलमणंतियं सदं जाणाइ ___ पासइ ' सर्वदूरमूलम् सर्वथा सर्वापेक्षया दूरं विप्रकृष्टं मूलंच समीपं सर्वदूरमूलम् णं भंते ! छ उमत्थे मणूसे' हे भदन्त ! जिस प्रकार से छद्मस्थ मनुष्य • 'आरगयाइं सद्दादं सुणेइस में रहे हुए शब्दों को तो सुनता है ___ और णो पारगयाई सघाई सुइ' दूर रहे हुए शब्दों को नहीं सुनता है ' तह णं भंते ! उसी प्रकार से हे भदन्त ! 'केवली मणुस्से ' जो केव• ली भगवान् हैं वे 'किं आरगयाइं सदाइं सुणेइ ! क्या पास में रहे हुए ही शब्दों को सुनते हैं और 'णो पारगयाइं सद्दाइं सुणेइ ' जो शब्द ___उन से दूर देश में-अयोग्य देश में स्थित है उन्हें नहीं सुनते हैं क्या? इस के समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि-'केवली णं आरगयं वा पारगयं वा जाव पासह ' हे गौतम ! जो केवलज्ञानी होते हैं ऐसे मनुष्य इन्द्रियसमीपस्थित और इन्द्रियसमीपस्थित नहीं भी-ऐसे शब्दों को तथा 'सव्वदूरमूलमणतियं सई जाणइ, पासइ' सर्वथा सर्वा. पेक्षया दूर अत्यन्त विप्रकृष्ट और मूल-समीप में रहे हुए शब्दों को, अर्थात् अत्यन्त दूर वर्ती शब्दों को, तथा अत्यन्त निकट वर्ती भी शब्दों प्रश्न- (जहा णं भंते ! छउमत्थे मणूसे) 3 मह- तरे शत छमस्थ मनुष्य (आरगयाई सहाई सुणेइ ) पासेथी माता शहोने सलले छ ५९५ (णो पारगयाइं साइं सुणेइ ) २ना शहोने सiend नथी, " तहणमते " मे प्रभारी, महन्त । (केवली मणुस्से) “सी लगवान " ( आरगयाई सदाइं सुणेई) शु. पासेना शहोने ८ सालणे छ भने ( पारगयाइं सहाई णो सुणेइ) २थी मापता (अयाय प्रशमाथी मावता) शहाने सालणता नथी ? Gत्तर- (केवली णं आरगयं वा पारगयं वा जाव पासइ ) हे गौतम! કેવલજ્ઞાની મનુષ્ય ઈન્દ્રિયની નજીકમાં રહેલા અને ઈન્દ્રિયથી દૂર રહેલા શબ્દોને यथा (सवमूलमणतियं सदं जाणइ, पासइ) आयत २वती शहोने मने अत्यात નિકાવતી શબ્દને પિતાને કેવળજ્ઞાન દ્વારા જાણે છે. અને દેખે છે કેવળજ્ઞાનને
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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