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________________ प्रमेचन्द्रिका टीका श० ५ १०४ १० १ छद्मरथशब्दश्रवणनिरूपणम् १९१ जानाति केवली सर्वभावान् पश्यति केवली, अनन्तं ज्ञानं केवलिनः, अनन्तं दर्शन केवलिना, निवृतं ज्ञानं केवलिनः, निवृतं दर्शनम् केवलिनः तत् तेनार्थेन यावत्पश्यति ॥ सू० १॥ टीका:-पूर्वोद्देशके अन्यतीर्थिक छद्मस्थ मनुष्यवक्तव्यता प्रतिपादिता, आरिमन् उद्देश केतु छद्मरथमनुष्यकेवलिप्रभृतिना वक्तव्यतामाह-' छउमत्थे णं भंते । मणुस्से ' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! छमस्थः खलु मनुध्यः 'आउडिज्जमाणाई सदाइं मुणेइ ' आकुटयमानान् ताडन्यमानान् मुखहस्तदण्डाभिरताड तेन समुत्पद्यमानान् शब्दान ऋणोति ? । तानेवाह-'तं जहा संखसहाणि वा, सिंगसहाणि वा, इत्यादि । तद्यथा-शङ्खशब्दान् वा, शङ्गशब्दान वा, शॉ मृगादिशृङ्गम् तस्य शब्दान् मृगादिशृङ्गे छिद्रं कृत्वा वाधविशेषं करोति तादृशशृङ्ग शब्दान् ' संख्यिसहाणि वा' शशिकाशब्दान् वा हरवः शङ्खः शसिका, तस्या ते है और समस्त पदार्थों को वे देखते हैं। केवली भगवान् का ज्ञान अनन्त होता है । उनका दर्शन भी अनन्त होता है । उनका ज्ञान आवरणरहित होता है उनका दर्शन भी आवरण रहित होता है। इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा पूर्वोक्त रूप से कहा है॥ टीकार्थ-पूर्व उद्देशक में अन्यतीर्थिक छद्मस्थमनुष्य संबंधी वक्तव्यता कही गई है। अब सूत्रकार इस उद्देशक में छद्मस्थ मनुष्य संबंधी और केवलो मनुष्य संबंधी वक्तव्यता का कथन कर रहे हैं-इस में गौतम प्रभु से पूछते हैं कि " छउमत्थेणं भंते मणुस्से" हे भदन्त ! जो छमस्थ मनुष्य है वह 'आउडिजमाणाई सहाई सुणेई' आकुटयमान-ताड्यमाने मुख हस्त एवं दण्ड आदिकों के संयोग होने से उत्पन्न हुए शब्दों को सुनता है-अर्थात् मुख के साथ शख आदि का जब सयोग होता है तब उससे “पूपू"शब्द निकलता है, हाथ के साथ तबला आदि का અને સમસ્ત પદાર્થોને કેવલી દેખે છે. કેવલીભગવાનનું જ્ઞાન અનંત હોય છે. તેમનું દર્શન ગણ અનંત હોય છે. તેમનું જ્ઞાન આવરણ રહિત હોય છે, તેમનું દર્શન પણ આવરણ રહિત હોય છે. હે ગૌતમ! તે કારણે મેંપર્વોક્ત કથન કર્યું છે. ટકાથ-આ ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકાર છદ્મસ્થ મનુષ્યનું અને કેવલી મનુષ્યનું नि३५ यु छ. गौतम स्वामी महावीर प्रसुने मेरो प्रश्न ४२ छ । (छ उमत्थेणं भते मणुस्से ) 3 महन्त ! ७५स्थ मनुष्य (आउडिज्जमाणाई सद्दाई सुणेइ) વાઘોને વગાડવાથી ઉત્પન્ન થતા ધ્વનિને સાંભળે છે ખરો? ઢોલ નગારા આદિ પર ડાંડી ટીપવાથી અવાજ નીકળે છે. શંખ આદિ વાદ્યોમાં મુખ વડે હવા
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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