SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ भगवतीस्त्र विति' आनुपूर्वीग्रथितानि यावत्-तिष्ठन्ति, अतीतानि वर्तमानभवान्तानि-अन्य भविकमन्यभविकेन संबद्धमित्येवं सर्वाणि एकस्य जीवस्यायूंपि अन्योन्य प्रतिवद्धानि भवन्ति न तु एकभवे एव बहूनि आयूंषि एकस्य जीवस्य इत्याशयः, अतएव 'एगेवियणंजीवे' एकोऽपि च खलु जीवः, 'एकेन समयेन एककालावच्छेदेन 'एगं आउयं पडिसंवेदेह एकम् आयुष्कं पतिसंवेदयति, नतु द्वे आयुपी, बहूनि वा आयूंषि -इति, तदेवाह-'तं जहा इहभवियाउयं वा तद्यथा इहभाविकायुष्कं वर्तमानभवायुवा 'परभवियाउयंवा' परभविकायुष्कं वा, तथा च परभवभोगयोग्यं यद् वर्तमान भवे प्रतिवद्धं तच्च परभवे गतः सन् प्रतिसंवेदयति, तदेव परभवायुष्कमिति व्यपदिश्यते तदेव विशदति- 'जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ 'यं समयं प्रत्येक भव की आयु के साथ अर्थात् भूतकाल के समस्त भवों की आयुएँ अभीतक के वर्तमान भवकी आयु के साथ-सांकल की कड़ियों की तरह संवद्धित हैं । ऐसा नहीं है कि एक जीव के एक भव के साथ ही पहिले भक्तों की सब आयुर संबद्धित हो । इस लिये 'एगे विय णं जीवे' एक जीव 'एगे णं समएणं' एक समय में 'एग आउयं' एक ही आयु को 'पडिसंवेदेइ' भोगतो है। दो आयुओं को अथवा घहुत आयुओं को नहीं भोगता है । 'तं जहा इहभवियाउयं वा परभवियाउयं वा' एक समय में जीव या तो वर्तमानभव सम्बन्धी आयु को भोगता है या परभवसम्बन्धी आयु को भोगता है " परभव संब. धी आयु को भोगता है " इसका भाव यह है कि परभव में भोगने योग्य आयु जिसे वर्तमान भव में जीव ने बांध लिया है उसे परभव में जाकर वह भोगता है 'जं समय इहवियाउयं पडिसंवेदेह' સાથે એટલેકે ભૂતકાળના સમસ્ત ભનાં આયુએ અત્યાર સુધીના વર્તમાન ભવના આયુની સાથે-સાંકળનિ કડીઓની જેમ સંબદ્ધિત છે. એવું નથી કે એક જીવના એક ભવની સાથે જ પહેલાં ભવના બધાં આયુ સંબદ્ધિત, डाय तथी " एगे वि य ण जीवे " ( एगेणं समएणं) मे सभये ( एग आउय) मे - आयुर्नु ( पडिसंवेदे ) वहन ४२ छ-मे मायुमार्नु पधारे मायुमार्नु वेहन ४रते ४थी. “ तजहा इहभवियाउय पा, परंभवियाउय) मे समय से 04 sil Aधा (वर्तमान ભવના ) આયુને ભેગવે છે, અથવાત પરભવ સંબંધી આયુને ભેગવે છે આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે પરભવમાં ભેગવવા યોગ્ય આયુ કે જેને બધુ જીવે વર્તમાન ભવમાં બળેિ છે, તેને જીવ પરભવમાં જઈએ ભેગવે છે. "ज समय इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो त समयं परमवियाउयं पडिसवेरेई)
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy