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________________ । प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ० ३ सू०१ अन्यतीथिकमिथ्याज्ञाननिरूपणम् १५७ : यत्र तदन्योन्यभारिकं तद्भावस्तता तया, एवं चोक्तार्थद्वयस्यैव संयोजनया प्रत्येक तयोः प्रकर्ष प्रतिपादयन्नाह-'अन्नमनगरुयसंभारियत्ताए ' अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया, अन्योन्येन गुरुकं च तत् संभारिकं चेति तथो, तद्भावस्तत्ता तया एवम् 'अनमनघडताए' अन्योन्यघटतया, अन्योन्य घटसमुदायरचना यत्र तदा न्योन्यघटं तद्भावस्तत्ता तया 'चिट्ठइ' तिष्ठति-आस्ते । एतावत्पर्यन्तं दृष्टान्तः, अथ तं दान्तिके योजयति-'एवामेव' एवमेव अनेनैवोक्तजालग्रन्थिकान्यायेन एकस्मिन्नपि जाले परस्परपृथक्संवद्धानेकग्रंथिवत् ‘बहुणं जीवाणं' बहूनां जीवानाम् सम्बन्धोनि 'आयुष्कसहस्राणि' इत्यग्रेणान्वयः, 'वहुसु आजाइ सहस्सेसु' बहुषु अनेकेषु प्रतिजीवं क्रमतः प्रवृत्तेषु आजातिसहस्रेषु देवादिजन्म सहश्लेषु अधिकरणरूपेषु आधेयतया वर्तमानानि 'वहूइंआउयसहस्साइ' उन लगी हुई गाठों में बट जाता है अतः समान भार वाली वह जालग्रन्थिका हो जाती है इस तरह विस्तार वाली और समान भार वाली वह जालग्रन्थिका 'अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठई' आपस में एक समुदायरूप पदार्थ बन जाती है। उसमें जितनी भी चीजें-गांठ वगैरह आदि हैं वे परस्पर में असहयोग भाव से नहीं रहती हैं प्रत्युत सहयोग भाव से ही रहती हैं-इस कारण वह जालग्रन्थिका एक समुदायरूप पदार्थ बन जाती है। यहां तक तो सूत्रकार ने दृष्टान्त का स्पष्टीकरण किया है अब वे इस दृष्टान्त को दाष्टान्त में घटित करते हैं- 'एवामेव' इसी तरह से कहे हुए जालग्रन्थिकारूप दृष्टान्त के अनुसार-एक ही जाल में परस्पर पृथक २ रूप से संबद्ध अनेक गांठों की तरह 'बहणं जीवाणं ' अनेक जीवों संबंधी 'बहूइं आउयसहस्साई' अनेक हजारों વહેંચાઈ જાય છેઆ રીતે સમાન ભાર વાળી તે જાળઝન્શિકા બની જાય छ. मा शत विरतारवाणी भने समानमा२ वाजी थि(अन्नमन्नघडत्ताए चिठुइ ) भन्योन्य समुदाय३५ पहा मनी नय छ ममा २८सी is આદિચી હોય છે, તે પરસ્પર સહગ ભાવથી રહે છે અસહયોગ ભાવથી રહેતી નથી. તે કારણે તે જાળઝશ્વિક એક સમુદાયરૂપ પદાર્થ બની જાય છે. અહીં સુધી તે સૂત્રકારે દૃષ્ટાંતનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. હવે સૂત્રકાર તે દૃષ્ટાન્તને જીવના અનેક ભ સાથે ઘટાવાને માટે નીચે પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરે छे-(एवामेव) सन्यिाना दृष्टान्त मनुसा२-४ २ari ५२२५२ महाग मा शत छ भने महिनीम, ( बहूणं जीवाणं) मने लाना
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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