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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ०३ सू० १ अन्यतीथिकमिथ्याज्ञाननिरूपणम् १५१ भारिकतया, अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया, अन्योन्यघटतया तिष्ठति, एवमेव बहूनां जीवानाम्, बहुषु आजातिसहस्रेषु वहूनि आयुष्कसहस्राणि आनुपूर्वीग्रथितानि यावत्-तिष्ठन्ति, एकोऽपि च खलु जीवः एकेन समयेन द्वे आयुषी प्रतिसंवेदयति, तद्यथा-इहभवायुष्कं च परभवायुष्कं च । यं समयम् इहभवायुष्कं मतिसंवेद यति, तं समय परभवायुष्कं प्रतिसंवेदयति, यावत् तत् कथम् एतत् भदन्त ! एवम् ग्रंथि हुइ हो, परस्पर में गूंथी हो, ऐसी वह जाल ग्रन्थिका जैसा (अन्नमन्नगरुयत्ताए, अन्नमन्नभारियत्ताए, अन्नमन्नगख्यसंभारियताएं, अन्नमन्नघडताए चिट्ठ) आपस में गांठों के लगजाने से विस्तीर्ण हो जाती है, परस्पर में भार से युक्त हो जाती है, आपस में विस्तीर्ण और भारवाली हो जाती है, आपस में समुदायवाली हो जाती है (एवमेव बहणं जीवाण बहसु आजाइसहस्सेसु, बहूई आउयसहस्साई, आणुपुन्धि गढियाइं जाव चिट्ठति ) इसी तरह से अनेक जीवों की हजारों आयुएं अनेक हजार भवों में परस्पर क्रम २ ले संबद्ध होती हैं । इस तरह होने से ( एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो आउयोइं पडिसंवेदइ) एक जीव भी एक समय में दो आयुओं का वेदन अर्थात् अनुभव करता है । (तं जहा) वे दो आयुएँ ये हैं (इहभविया उयं च, परभविया उयं च ) एक इस भवसंबंधी आयु और दूसरे परभवसंबंधी आयु (जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेह, तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ ) जीव जिस समय में इह भवसंबंधी आयु का अनुभव डाय, ५२२५२मा यूसी डायमेवी मन्थि पी शेते ( अन्नमनगरुयत्ताए, अन्नमत्रभारियत्ताए, अन्नमन्त्र गरुयसभारियत्ताए अन्नमनघडत्ताए चिदुइ) भ२९५રસમાં ગાંઠે લાગી જવાથી વિસ્તીર્ણ થઈ જાય છે, પરસ્પર ભારથી યુક્ત થઈ જાય છે, આપસમાં વિસ્તીર્ણ અને ભારવાળી થઈ જાય છે, આપસમાં समुहायवाणी था लय छ, (एवमेव बहुण जीवाण बहुसु आजाइसहस्सेसु, बहूई आउयसहस्साई, आणुपुष्वि गढियाइं जाव चिटुति) वी शत, गने वानी હજારે આયુઓ અનેક હજાર ભામાં પરસ્પર ક્રમ ક્રમથી સંબદ્ધ થાય છે, माम थपाथी (एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पडिसवेदेइ) मे ७१ પણ એક સમયે બે આયુઓનું વેદન કરે છે-બે આયુઓને અનુભવ કરે છે. (तजहा) तमे माया नीय प्रभारी छ-( इहभवियाउय च, परभविया उयच) (१) मा सव समधी मायु मन (२) ५२सव समाध माय (जं समय इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, त समय परभवियाउयं पडिमवेदेइ) १. જે સમયે આ ભવ સંબધ આયુને અનુભવ કરતા હોય છે, ત્યારે પરભવ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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