SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1048
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२५ प्रचन्द्रिका टी० श० ६ ४०४ सू०२ प्रत्याख्यानादिनिरूपणम् नेरहया' शेषाः वानव्यन्तरज्योतिषिकवैमानिकाः यथा नैरयिका उक्तास्तथा विज्ञेयाः । तथा नैरयिकाणां केवलम् अमत्याख्यानित्वस्योक्तत्वेन मानव्यन्तरादीनामपि केवलम् अप्रत्याख्या निलमेवावसेयम् । प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञानं विना न भवि तुमर्हतीति तज्ज्ञानं प्रतिपादयितुमाह- 'जीवाणं भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाणं जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक वाणं जाणंति ?' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! विरति अप्रत्याख्यानरूप होती है इसी का नाम प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान है। ऐसा ही चारित्र देशविर तिवाले श्रावक का होता है। इसके हिंसादिक पांच पापों का सर्व रूप से त्याग नहीं होता है किन्तु अनुरूप से ही होता है । इसी कारण इसका चारित्र ( अणुव्रत ) ऐसा कहा गया है । सर्व विरतिरूप चारित्र में हिंसादि पापों का त्याग सर्व रूप से हो जाता है इस कारण सर्वविरतिरूप चरित्र ( महाव्रत ) ऐसा कहा गया है ' सेसा जहा नेरहया शेष-वानव्यन्तर, ज्योतिषिक, एवं वैमानिक ये सब नैरधिक जीवों की तरह जानना चाहिये-अर्थात् नैरयिक जीव जिस तरह से केवल अप्रत्याख्यानी कहे गये हैं- उसी प्रकार से ये सब देव भी केवल अप्रत्याख्यानी होते हैं ऐसा जानना चाहिये । अब सूत्रकार यह बात प्रकट करते हैं कि पत्याख्यान प्रत्याख्यान का ज्ञान हुए बिना नहीं हो सकता है-इसी बात को गौतम ने प्रभु से इस प्रकार से पूछा है कि - ( जीवाणं भंते । किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाणं छे, मा अारनी देशविरति ( अंशतः विरति ) ने प्रत्याख्याना - प्रत्याभ्यान કહે છે. એવું જ ચારિત્ર દેશવિરતિવાળા શ્રાવકનું હોય છે તેના દ્વારા હિંસાદિક પાંચ પાપાના સપૂર્ણ રૂપે ત્યાગ કરાતેા નથી, પણ અનુરૂપે જ (અંશતઃ) ત્યાગ કરાય છે, તે કારણે તેના ચારિત્રને “ અણુવ્રત " हे छे. सर्वविरति રૂપ ચારિત્ર અગીકાર કરનાર હિંસાદિક પાપાને સ'પૂર્ણપણે ત્યાગ કરે છે, તે अरणे सर्वविरति ३५ व्यास्त्रिने " महाव्रत " हे छे. ( सेसा जहा नेरइया ) બાકીના જીવા એટલે કે વાનભ્યન્તર, પ્રતિષિક દેવા અને વૈમાનિકેશને નારકાની જેમ અપ્રત્યખ્યાની જ સમજવા. તે પ્રત્યાખ્યાની પણ હાતા નથી અને પ્રત્યાખ્યાના-પ્રચખ્યાની પણ હાતા નથી. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે પ્રત્યાખ્યાનનું જ્ઞાન થયા વિના પ્રત્યાખ્યાન થઈ શકતા નથી. એજ વાતને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર अलुने या प्रमाणे प्रश्न पूछे छे - ( जीवा णं भवे ! किं पञ्चक्खाणं जाणंति ? अपच्चक्खाणं जाणंति ? पच्चवखागपच्चक्खाणं जाणंति ? ) हे लक्ष्न्त । शुं भ १२९ 1
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy