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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. ३ सू०४ जीवानां एजनादिक्रियानिरूपणम् ५७३ सत् मसमसेतिशब्दं कुर्वन दग्धं भवतीति, ततो भगवान् द्वितीयदृष्टान्तेन पुनः सकलकर्मक्षयरूपांमन्तक्रियामुपपादयति-' से जहानीne ar' इत्यादि । 'तद्यथानाम कश्चित् ' पुरिसे' पुरुषः 'तत्तंसि' 'तप्ते संतप्ते 'अयकवल्लंसि' अयस्कपाले तथा इति भाषामसिद्धे ' ' उदयबिंदु' उदकविन्दुम् 'पक्खिवेज्जा' क्षिपेत् 'से शृंण' अथ नूनं निथितं " मंडियपुत्ता' हे मण्डितपुत्र 'से उदयबिंदू' स उदकविन्दुः 'तत्संसि' तप्ते 'अंयकवल्लंसि' अयस्कपाले 'पक्खित्ते समाणे' मक्षिप्तः सन् 'खिप्पामेव' 'क्षिममेव शीघ्रमेव 'विद्वंसमाग`च्छइ ? विध्वसं 'विनाशम् आगच्छेति प्राप्नोति किम् ? मण्डितपुत्रः प्राह - हंता, विद्वंसमागच्छ इन्त सत्यम् विध्वंसं विनाशम् आगच्छति प्राप्नोति, अत्र द्वयस्यापि उपनयार्थः सामर्थ्यगम्यो भवति, यथा एजनादि रहितस्य जल जाता हैं । 'मस' 'मस' ऐसा शब्द करता हुआ वह अग्निमें भस्म हो जाता है । अब प्रभु द्वितीय दृष्टान्तद्वारा सकलकर्मक्षयरूप अन्तक्रिया का समर्थन करते हैं-' से जहा नामए केइ पुरिसे' जैसे कोई मनुष्य ' तत्तंसि' तप्त ' अयकवल्लंसि' लोहकटाह - तवाके ऊपर 'उदयविंदु पानी के धुंदको 'पक्खिवेजा' डाले 'से' तो 'पूर्ण' अवश्य ही 'मंडियपुत्ता' हे मण्डितपुत्र ! 'से उदयविंदू' वह उदकबिंदु 'तत्तंसि' संतप्त 'अयकचलंसि' तवा ऊपर 'पक्खित्ते समाणे' डालीजानेपर 'विद्धं समागच्छ' विनष्ट हो जाता है न ? 'हंता विद्वंसमागच्छ' हां भदन्त ! वह जलबिंदु अवश्य नष्ट हो जाता है । इन दोनों दृष्टान्तों का उपनार्थ इस प्रकार से है कि एजनादिक्रिया से रहित जीवकी लस्भ यह लय छे. 'मसमस' भेटले हे 'भस' सेवा भवान उरतो लडलडार सजगी ઉઠે છે. હવે બીજા દૃષ્ટાન્ત દ્વારા મહાવીર પ્રભુ સકળ કર્મીના ક્ષયરૂપ અન્તક્રિયાનું समर्थन रे छे -' से जहानामए के पुरिसे' धारी पुरुष ' तत्तंसि तत (तपावेक्षा) ‘अयकवल्लंसि' बोढाना तवानी (५२ ' उदयबिंदु पक्खिवेज्जा' पाथीनुं टी नाणे, 'सेणूणं मंडियपुत्ता, तो भडितपुत्र ! ' से उदयबिंदू तत्तंसि अयकवलंस पक्खित्ते समाणे' तथावेसा तवा पर नाध्यतानी साथै चालीनुं टीपु ' विद्धंसमागच्छ ' नष्ट थाई लय छे है नहीं ? मे वातना | २ ४२ता मंडितपुत्र छे- 'हंता, विद्धंसमागच्छर' महन्त ! ते मिन्ड અવશ્ય નષ્ટ થઈ જાય છે. આ બન્ને દૃષ્ટાન્તા દ્વારા મહાવીર ભગવાને નીચેની વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું. છે—એજન (કપન) આદિ ક્રિયાઓથી રહિત જીવની સમુચ્છિન્ન ક્રિયા : 1
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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