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________________ 3 प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. ३ . ४ जीवानां एजनादि क्रियानिरूपणम् ६६९ पूर्णा पूर्णप्रमाणा, व्यपलुटयन्ती, विकसन्ती, समभरघटतया तिष्ठति, इन्त, तिष्ठति, अथ कचित् पुरुषः तस्याः नावः सर्वतः समन्तात् आस्रवद्वाराणि पिदधाति, पिधाय, नायुत्सेचनकेन उदकमुत्सिन्चेत तन्नूनं मण्डितपुत्र ? सा नौः तस्मिन् उदके उत्सिक्ते सति, क्षिममेव ऊर्ध्वमुद्याति ? हन्त, उधाति, एवमेव आपूरेमाणी) भरती भरती (पुण्णा) पूरा भर जाता है ( पुण्णप्पमाणो ). लबालब भर जाता है - उसके ऊपर तक पानी आ जाता हैं । (बोलहमाणा वट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्टह) जलकी तरङ्गो से वह मानो उछलने लगता है, जलकी अधिकता से चारों ओर से वह खूब पानी से व्याप्त होकर पानीमय बन जाती है (और ऐसा मालूम होने लगता है कि जल से पूर्ण भरे हुए घडेकी तरह वह हर तरह से जलसे ही व्याप्त हो रहा हो (मंडियपुत्ता) हे मंडितपुत्र ! यह बात ठीक है न ? (हंता चिह्न) हां भदन्त ! यह बात ठीक है । ( अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए) अब और सोचो - कोई पुरुष उस नाव के (सव्वओ समता आसवदारा पिइ ) उन समस्त छिद्रोंको सब तरफसे सूंद दे बंद करदे और (पिहिता) बंद करके ( नावा - असि च णणं उदयं अस्सिचिजा ) नावसे पानी निकालने के साधनद्वारा पानी को उलीचदे - बाहर निकाल दे । तो ( से शृंणं मंडियपुत्ता) हे मंडितपुत्र ! (सा नावा तंसि उदयसि) वह नाव उस जल के (उस्सित्तंसि समाणंसि) निकल जाने पर ( खिप्पामेव) शीघ्र ही (उड्ढ) ऊंचे-पानी के ऊपर (उद्दाइ) ऊपर आ जाती है न ? (हं ता उद्दाह) हां भदन्त ! वह नौका पुष्णष्पमाणा, बोलट्टमाणा वीसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिहड़ ) तो हे मंडितपुत्र ! તે સેંકડા છિદ્રો દ્વારા પ્રવેશતા પાણીથી ભરાતી ભરાતી તે નાવ પૂરે પૂરી તે પાણીથી બ્લેછલ ભરાઇ જાય છે કે નહીં ?-તેમાંથી પાણી છલકાવા માંડે છે કે નહીં ? પાણીનાં મેાજા એથી જાણે કે તે ઉછળવા માંડે છે કે નહી? અને ચામેર પાણીથી ન્યાત એવી તે નાવડી જાણે કે પાણીમય જ બની જાય છે કે નહી? અને શું એવું નથી લાગતુ કે પાણીથી છોછલ ભરેલા ઘડાની જેમ તે પાણીમાં ડૂબી रही छे ? ( हंता, चिह्न) डे बहुत ! मे अवश्य जने छे. (अहेणं केइ पुरि से तीसे नावाए) वे धारी अर्ध पुरुष ते नावनां (सव्वओ समंता आसवदाराई पिछेड़ ) अधां छिद्रोने तद्दन पूरी नाथे, भने त्यार माह (पिहित्ता नावा असि च एणं उदयं अस्सिचिज्जा ) हो साधन द्वारा नावांथी पाणीने उसेशी नाचे, तो ( से पूर्ण मंडियपुत्ता ! ) हे भडितपुत्र ! (सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समा सि खिप्पामेव उडूढं उद्दाइ ) ते नाव तुरंत पानी उपर भावी लय है! नहीं ? (हंता, उद्दाइ ) हे महन्त ! ा, ते ना तुरंत पाली (५२ भावी नय
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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