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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ.३ २.३ जीवानां एजनादिक्रियानिरूपणम् ५६५.. ' सारंभे अवट्टमाणे ' संरम्भे अवर्तमानः 'समारंभे अवमाणे' समारम्भे अवर्तमानः 'यहणं पाणाणं' वहूनां प्राणानाम् 'भूयाणं' भूतानाम् 'जीवाणं' जीवानाम् ' सत्ताणं' सचानाम् ' अदुक्खावणयाए' अदुःखापनवायाम् अदुः खापनायाम् 'जाव-अपरितावणयाए ' यावत्-अपरितापनतायाम् 'वट्टई' वर्तते तिष्ठति, यावत्करणात्-अशोकापनायाम् अजूरापनायाम्, अतेपापनायाम्, अपिट्टापनायाम्' इति संग्राह्यम् ॥ मू० ३ ॥ करता हुआ तथा द्वितीय वाक्य के अनुवादानुसार 'आरंभे अवमाणे' आरंभ में अवर्तमान होता हुआ 'सारं भे अवट्टमाणे' संरभ में अ-वर्तमान होता हुआ 'यहणं पाणाणं' अनेक प्राणियों को 'भूयाणं' अनेक भूतों को, 'जीवाणं' अनेक जीवों को, 'सत्ताणं' अनेक सत्त्वों को 'अदुक्खावणयाए' दुःखी नहीं करता है 'जाव' यावत् वह 'अ. परितावणयाए वई' उन्हें परितापित नहीं करता है। यहां यावत् पद से 'अशोकापनायाम् , अजूरापनायाम् , अतेपापनायाम् , अपिट्टा. पनायाम् ' इन पूर्वोक्त पदों का ग्रहण किया गया है। कहने का सारांश केवल यही है कि जो जीव विकृतभावों के प्रभाव से अपने आपको दूर रखने की शक्तिवाला हो जाता है-ऐसावह जीव आरंभ संरंभ आदि जीवोपघातक क्रियाओं में कभी भि प्रवृत्ति नहीं करता और न उसके द्वारा किसी भी जीव को थोड़ी सी भी बाधा उपस्थित होती हैं इस कारण ऐसा जीव नवीन शुभाशुभ कर्मो के आस्रव से रहित होता हुआ संचित कर्मों की नर्जरा करके अन्त में मुक्ति का स्वामी बन जाता है ॥ सू० ३ ॥ सभा समां मप्रवृत्त व ते ७५ वरणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं' અનેક પ્રાણિઓને, અનેક ભૂતને, અનેક જીવોને તથા અનેક સને (આ ચારેને तशत मा सूत्रमा माग समतव्य। छ) 'अदक्खावणयाए' भी ४२ते नथी, 'जाव अपरितावणयाए' शोथी व्याण तो नथी, मन शारीरि४ ता લાવવામાં કારણભૂત બનતું નથી, રડાવતે નથી, મારતા નથી અને વ્યથા પણ પહોંચાડ નથી. કહેવાને ભાવાર્થ એ છે કે જે જીવ વિકૃત ભાના પ્રભાવથી પિતાની જાતને મુક્ત રાખી શકે છે, તે જીવ આરંભ, સમારંભ આદિ છપધાતક ક્રિયાઓ કદી કરતું નથી. અને તે કારણે તેના દ્વારા કોઈ પણ જીવને સહેજ પણ પીડા કરાતી નથી. તેથી એ જીવ નવીન શુભાશુભ કર્મોના આસવથી રહિત બને છે અને સંચિત કર્મોની નિર્જરા કરીને મુકિત પ્રાપ્ત કરે છે. એ સૂ. ૩ છે
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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