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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ. २ सु. ७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ४१७ "णिग्गच्छई' निर्गच्छति, 'णिग्गच्छित्ता' निर्गत्य 'जेणेव यौव यस्मिन्नेव प्रदेशे 'तिगिच्छकूडे' तिगिच्छिकूटः तमामकः 'उप्पायपचए' उत्पातपर्वतो वर्तते 'तेणेव' तौव तस्मिन्नेव प्रदेशे 'उवागच्छई उपागच्छति, 'उवाच्छित्ता' उपागत्य 'जाव-दोचपि' यावद्वितीयमपि वारं चिकीर्पितरूपनिर्माणार्थ 'वेउ. ब्धियमुग्याएणं' वैक्रियसमुद्घातेन 'समोडणई' समवहन्ति-समुत्घातं करोति, 'समोहणित्ता' समवहत्य-समुत्यातं कृत्वा यावत्करणात् विकुर्वणाशक्या प्रथमवैक्रियसमुदघातेन समवयातद्वारा निजात्मप्रदेशस्थितजीर्णस्थूलपुद्गलानां संहरणादि संग्राह्यम् । ततः संखेजाई' संख्येयानि 'जोयणाई योजनानि 'जावउत्तरविउविसरूवं' यावत्-उत्तरवैक्रियरूपम् 'विकुन्नइ' विकुति-विकुर्वणानिकलकर 'जेणेव जिस प्रदेशमें 'तिगिच्छकूडे' तिगिच्छकूट नामका उपाय पचए' उत्पात पर्वतथा 'तेणेव उवागच्छई' वहां पर पहुँचा 'उवगछित्ता' वहां पहुँच कर 'जाव दोचपि' यावत् द्वितीय चार भी-इच्छित रूप बनानेके लिये 'वेउब्धियसमुग्घाएणं यह चैक्रिय समुद्धातसे समोदणाई' समवहत हुआ-अर्थात् उसने समुद्धात किया, यहां जो यावत् शब्द आया हैं इससे यह बात प्रकट की गई है कि जब उसने प्रथम समुद्धात किया था. इसमें इसने आत्मप्रदेश स्थित जीर्ण स्थूल पुद्गलों का संहरण आदि कार्य किया बाद में उसने दुवारा वैकिय समुद्धात किया इसमें उसने इच्छितरूपो का निर्माण किया। इस तरह इच्छितरूप का निर्माण कर उसने उस रूप को संख्यात योजन तक का बनाया यही यात 'संघजाई जोयणाइं इस पद द्वारा प्रकट की है । यहां जो 'जाव' पद आया है उसमे यह बात प्रकट की गई है कि जब ५च्या. त्यांची नाजान 'जेणेवर या तिगिच्छकूडे' तिमि२७३२ नामना 'उप्पायपव्वए' 64 पति मा हतो तेणेव उवागच्छइ' त्यi ws पश्यो. 'उवागच्छित्ता' या ने 'जाव दोचंपि वेउब्धियसमुग्याएणं समो. हणाई' "तो भी पार वठिय समुहधात ध्ये त्यां सुधार्नु समस्त ४यन यु ४२j महा "जाव (पर्य-त) ५६ मायुछेतनास पातमतावामी मावी छ કે તેણે પહેલી વાર સમુદઘાત કરીને આત્મકથ્થામાં રહેલા જીણું સ્થૂલ પુદગલાનું સંહરણ આદિ કર્યું હતું. ત્યારબાદ તેણે બીજી વાર વૈક્રિય સમુદઘાત કર્યો. તે સમૃદુधात द्वारा तेथे ति पार्नु नि यु: 'संखेज्जाई. जोयणाई ति३५र्नु નિર્માણ કરીને તેણે તે રૂપને અસંખ્યાત જનન બનાવ્યું. આ રીતે બીજી વખત વૈક્રિય સમુદઘાત કરીને ઉત્તર પૈક્રિય રૂ૫ બનાવ્યા પહેલાં તેણે આત્મપ્રદેશની દંડ
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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