SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ भगवती 1 टीका- गौतममरेन्द्रस्य दिव्यदेवदिमाप्तिकारणं पृच्छति' चमरे ' इत्यादि । हे मदत ! नमरेण वाद 'सुरिंदेणं' असुरेन्द्रेण 'असुररण्णा' अगुरराजेन सा 'दिव्या' दिव्या 'देवी' देवद्भिः 'तं चैव जात्र-' तच्चैत्र यावत् यावत्पदेन 'दिव्या देववृतिः दिव्या देवानुभावः' इति संगृहते 'किरण' फेन प्रकारेण 'लदा' लब्धा 'पता' प्राप्ता 'अभिसमण्णागया ? अभिसमन्त्रा गता स्वाभिमुख्येन सम्यगनुभूता परिशुक्ता ? भगवानाह - ' एवं 'खलु गोमा !' इत्यादि । हे गौतम! एवं खलु 'तेणं काळेणं नास्मिन् काले टीकार्थ गौतमस्वामी प्रभु से चमरेन्द्रने दिव्य देवद्धि कैसे प्राप्त की इसका कारण पूछते हुए प्रश्न करते है- 'चमरे णं भंते' इत्यादि । 'भंते ' हे भदन्त ! 'चमरेणं' चमर ने जो कि 'असुरिंदेणं' असुरकुमार देवोंका इन्द्र है और 'असुरराया' असुरकुमारों का रोजा है 'सा दिव्या देविड्ढी' वह प्रसिद्ध दिव्य देवद्धि कैसे लब्ध की कैसे प्राप्त की (तं चेव जाव किण्णा लद्वा) यहां पर पूर्वमें कथित पाठ सब जानना चाहिये । अर्थात् चमर ने दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव कैसे प्राप्त किया। 'किण्णा अभिसमण्णागया' और कैसे उस दिव्य देवर्द्धिको दिव्य देवद्युतिको एवं दिव्य देवानुभावको अपनी ओर सन्मुख करके अच्छी तरह से भोगता है ? इस गौतमके प्रश्नका उत्तर देते हुए प्रभु उनसे कहते है- 'एवं खलु गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं खलु' मैं तुम्हे इस विषयको समझाता हूं सो सुनो- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और " ટીકા—અમરેન્દ્રે દિવ્ય દેવદ્ધિ આદિ કેવી રીતે પ્રાપ્ત કર્યાં, તેનું સૂત્રકારે આ सूत्रमां प्रतिपादन र्यु' छे. गौतम स्वाभी महावीर अलुने छे छे ! "संते । चमरेणं असुरिंदेणं असुरकुमारराया” हे लहन्त । असुरकुभाराना इन्द्र ने असुरसुभान राज्यभरे “सा दिव्या देवडी ४त्याहि” मा हिव्य हेवद्धि माहि हेवी रीते भेजव्या, કેવી રીતે પ્રાપ્ત કર્યાં મને કેવી રીતે પાતાને આધીન કરીને પાતાને માટે ભાગ્ય ખનાવ્યા છે? કહેવાના ભાવાથ એવા છેકે ચમરેન્દ્રને તેના પૂર્વ ભવના કેવા તપાકના પ્રભાવથી આ દિવ્ય દેવદ્ધિ, દિવ્ય દ્યુતિ, દિવ્ય પ્રભાવ આદિની પ્રાપ્તિ થઈ છે ? त्यारे महावीर प्रभु तेभने मा प्रमाणे वाण आये छे - "एवं खलु गोयमा ।" हे गौतम! हुँ' तने ते विषे ने समलघु ठु ते सांभ - "तेणं कालेनं तेणं समएं"
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy