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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३उ.२ मू.२ अमुरकुमारदेवानामुत्पतिक्रियानिरूपणम् ३५ रणविहरणपूर्वकनिवर्तनं संग्राह्यम् । भगवनाह - 'गोयमा'! इत्यादि हे गौतम ! 'अणंताहिं' अनन्ताभिः नास्ति अन्तो यासां ताभिः 'उस्स प्पिणीहिं ' उत्सर्पिणीभिः दशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणावरोहकालविशेष लक्ष णाभिः 'अणताहि' अनन्ताभिः 'अबसप्पणीहिं' अवसर्पिणीभिः, दशकोट कोटिसागरोपमप्रमाणावरोहकालविशेपस्वरूपाभिः 'समनिकताह' समति क्रान्ताभिः व्यतीताभिः, अर्थात् अनन्तोत्सर्पिणी-अनन्तावसर्पिणीनामककाल व्यतीतानन्तरं यदा असुरकुमारदेवानामूलोकोत्पतनं भवति तदा 'अत्य णं अस्ति खल भवति तोवत् 'एसमावे' एप भावः वृत्तान्तः 'लोयच्छेरयभूए सौधर्म स्वर्गतक जाते हैं पहिले वहीं तक गये हैं और आगे में वहीं तक जावेगे- सो आप हमे यह और समझा देनेकी दया के कि वे असुरकुमारदेव यावत् सौधर्म स्वर्गतक कितने काल के चार जाते हैं ? यहां जो यावत शब्द दिया है, उससे "पूर्वभवप्रत्ययिव वैरानुबंध और इसके निमित्त से वैक्रियशरीरका निर्माण, वैमानिक देवों को त्रास पहुँचाना, उनके यथोचित अल्पभारवाले बहुमूल रत्नोंको चुराना, चुराकर एकान्त प्रदेशमें ले जाना और फिर वहां से अपने स्थान पर लौट आना" यह सय पूर्वोक्त पाठ ग्रहप किया गया है । इस गौतमके प्रश्न का समाधान देने के निमित्त प्रर उनसे कहते है कि-'गोयमा !' हे गौतम ! जय 'अणंताहिं उस्स प्पिणीहिं' अनंत उत्सर्पिणी काल व्यतीत हो जाते है-अर्थात् १. कोडाकोडी सागरांपमका एक उत्सर्पिणी काल होता है-ऐसे कार जय अनंत हैं-व्यतीत हो जाते है, ऐसे उत्सर्पिणीकाल एक, दो तीन आदि संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं किन्तु अनंत जय समार हो चुकते है, ओर ईसी तरह 'अणंताहिं अवसप्पिणीहिं' १० कोड कोडी सागरोपम प्रमाण अवसर्पिणीकाल भी जय अनन्त 'समति આગલા પ્રકરણમાં આવતે નીચને ભાવાર્થ ગ્રહણ કરવાનો છે—“પૂર્વભવ પ્રત્યથિ વૈરાનુબંધ-તે કારણે વૈકિય શરીરનું નિર્માણ-વૈમાનિક દેવેને ત્રાસ હલકા વજનન બહુમૂલ્ય રત્નાને ચેરીને એકાન્ત પ્રદેશમાં ગમન ત્યાંથી પિતાને સ્થાને આગમન. આ કથન અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે ગૌતમના પ્રશ્નને જે જવાબ મહાવી प्रभु मापे छ त नीय शाध्य छे "गोयमा " गौतम ! "अणंताहि उस्सप्पिण हि अणंताहि अवसप्पिणीहिं समतिकंताहि" यारे सनत GrसKिetu
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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