SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टी. श. ३ उ. २ सू. १ भगवत्समवसरणम् चमरनिरूपणश्च ३३७ यकं सामर्थ्यं 'पणत्ते' मज्ञप्तम् कथितम् ? भगवानाह - 'गोयमा !' इत्यादि । हे गौतम! 'जाव असंखेज्जो' यावत् असंख्येयान 'दीवसमुद्दा' द्वीपसमुद्रान् गन्तुं समर्थाः यावत्करणात् केवलकल्पजम्बूद्वीपमारभ्य इति संग्राह्यम् । विपयमात्रतत्कथितम् नतु गता वा गमिष्यन्ति वा, किन्तु 'नंदिस्सरवरं' नन्दीश्वरवरं 'दीवं' द्वीपं 'गयाय' गताथ 'गमिस्संति य' गमिष्यन्ति गच्छन्ति च । अथ गौतमो नन्दीश्वरद्वीपगमनकारणं पृच्छति - 'किपत्तियं णं भंते ! इत्यादि । हे भगवन ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गइ विसए पण्णत्ते' हे भदंत ! कहांतक असुरकुमार देवों में तिर्यग्गमन करने की सामर्थ्य कही गई है ? अर्थात् असुरकुमार देव तिर्यग्गमन कहांतक कर सकते है ? उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं- 'गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव समुद्दा' हे गौतम! यदि ये तिर्यग्गमन करना चाहें तो असंख्यात द्वीपसमुद्रों तक जा सकते हैं, परन्तु ये अभीतक वहांतक न गये हैं, न जाते हैं और न आगे भी जायेंगे वह तो विषयमात्र कहा है । यहां जो यावत्पद आया है उससे 'केवलकप्पं जंबूद्वीपमारभ्य' इत्यादि पूर्वोक्त पाठ का संग्रह किया गया है । ये तिर्यग्गमन 'न'दिस्सरवरं दीवं' नंदीश्वर दीपतक करते हैं क्यों कि वहींतक ये 'गया य' गये हैं' 'गमिस्संति य' और आगे भी वहींतक जायेंगे। इससे आगे नहीं । नंदीश्वर दीपतक ही क्यों जाते हैं इसका कारण भंते ! असुरकुमाराणां देवानं तिरियं गइसिए पण्णत्ते ?" से लहन्त ! यासुरકુમાર દેવા કયાં સુધી તિય ગમન કરવાને સમથ છે? એટલે કે કર્યાં સુધી તિરછી દિશામાં જઇ શકે છે? तेन वा भहावीर प्रभु या प्रमाणे आये है- "गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा " हे गौतम । ले तेथे धारे तो असण्यात द्वीपसमुद्री सुधी तियગમન કરી શકે છે. પણ તે આજ સુધી કદી પણ ત્યાં સુધી ગયા નથી, વત માનમાં પણ ત્યાં સુધી જતા નથી અને ભવિષ્યમાં પણ ત્યાં સુધી જવાના નથી. તેમનું તિરછી ગતિનું સામર્થ્ય બતાવવા માટે જ આ થન કર્યું છે. અહીં જે केक जंबूद्वीपमारभ्य It यावत् ( जात्र ) " थह भाव्यु छे तेना द्वारा 66 " धत्याहि ” सूत्रपाठ थडषु हरायो छे भेटते है तो यूदीयथा सहने नंदिस्सरवरं दी गया य गमिस्संति य" नहीश्वर द्वीप सुधीन तिरछी गति उश्ता हता, छे અને ભવિષ્યમાં પણ ન દીશ્વર સુધી જ જશે. હવે તેમની નદીશ્વર દ્વીપ સુધી ગતિ શા કારણે થાય છે, તે જાણવા માટે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને નીચેને પ્રશ્ન પૂછે છે
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy