SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्द्रिका टीका श. ३ उ. १ माणामिक्याः प्रव्रज्यायाः महत्त्वादिनिरूपणम् २०३ चा 'पावा' प्राणम् श्वपाकं चाण्डालम् वा देशीयोऽयं पाणशब्दः चाण्डालवाचकः 'उच्च' पूज्यं श्रेष्ठ' 'पास' पश्यति 'उच्च पणामं करेड़' उच्च सातिशयम् प्रणमति 'नीयं पाम' नीच' पश्यति, 'नीयं' पणामं करेइ' नीच प्रणामं करोति, तदेवोपसंहरति- 'जं' जा पास'- इत्यादि । यं यथा पश्यति 'त' तहापणाम करे' तं तथा प्रणामं करोति, व्यक्तीनां योग्यतानुसारमेव प्रणामं करोति, एतावता यं पुरुपपश्वादिकं यथा यत्मकारक पूज्यापूज्यस्वभा पश्यति 'तं तहा' तं तथा पूज्या पूज्यौचित्यानुसारं 'पणाम करेइ ' प्रणामं करोति यद्वा उपरि अपः यत्र तत्र यं कमपि पश्यति तं सर्व तत्र तत्र प्रणमति इति भावः से तेगडे गं 'गोयमा !' तत् तस्मात् करणात् तेनार्थेन देखे, 'पाणं वा' किमी चाण्डालको देखे (पाणशब्द देशीय शब्द है और यह चाण्डाल वाचक है) 'उच्च' वा पास' किसी उच्च मनुष्य को देखे तो 'उच्च पणामं करेड़' सातिशय रूप में उसे प्रणाम करता है । 'नीयं पासह नीय पणाम करेइ ' यदि नीचको देखता है तो नीचे रूपमें उसे प्रणाम करता है । इसी बातको उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'जं जहा पासह तं तहा पणामं करेइ-से तेणद्वेग गोयमा ! एवं युवह पणामा पव्वज्जा' कि इस प्रव्रज्यावाला जिसको जिमरूपमें देखता है उसको उस रूपमें प्रणाम करता है। तात्पर्य यह है यह व्यक्तियोंको जो प्रणाम करता है वह उनकी योग्यता के अनुमार प्रणाम करता है । अतः जिस पुरुष को या पशु आदि को जिस पूज्या पूज्य प्रकारक स्वभाववाला यह देखता है उसे उसी पूज्यापूज्य स्वभावकी उचितनाके अनुसार प्रणाम किया करता है । अथवा - उपर नीचे जहां कहीं पर यह जिस किसी को भी देखता है उन सब को કાગડાન, શ્વાનને અથવા કૂતરાન દેખે, તા પણ તે પ્રણામ કરે છે. (પણુ ગામઠી शब्द छे. ते यांडासने भाटे वराय हे ) "उच्च वा पासइ" ले ते अर्थ अथी अटिना मनुष्यने देणे छे तो "उच्चं प्रणामं करेइ" तने अतिशय विनय पूर्व પ્રણામ કરે છે. " नीयं पास नीयपणामं करेड़ " ले ते श्रेष्ठ नीया अटिनी વ્યક્તિને દેખે છે તે તેને નીચે રૂપે પ્રણામ કરે છે. એ જ વાતને ઉપસંહાર કરતા सूत्रकार हे छे जं जहा पासइ तं तदा पणामं करेई से तेणद्वेगं गोयमा ! ઇત્યાદિ” આ પ્રકારની પ્રવ્રજ્યાધારી સાધુ જેને જે રૂપે દેખે છે તેને ત રૂપે પ્રણામ કરે છે. પૃયાપૂજ્ય સ્વભાવની ચેમ્બ્રતા અનુસાર તે દરેક પુરુષ અને પશુને પ્રણામ
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy