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________________ प्रमेयचन्किोटीका श. ३. उ.१ ईशानेन्द्रस्य देवद्धर्यादिप्राप्तिकारणनिरूपणम् १९३ इति पूर्वेणान्वयः 'त्तिकटु' इतिकृत्वा उक्तरूपेण अभिग्रह विधाय ‘एवं संपेहे' एवं संप्रेक्षते-विचारयति 'संपेहिता' संप्रेक्ष्य विचार्य च श्वोदिने यथोक्तनिय. मानुसारं ताम्रलिप्तो दीक्षां गृहीतवान इति प्रतिपादयति-'कल्लं' कल्पे प्रभातकाले 'पाउप्पभायाए' प्रादुप्प्रभातायाम् संजातपभातागं रजन्याम् 'जावजलंते' यावत् ज्वलति यावत् सूर्योदयो भवति तावत् स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रहक पात्रविशेपं करोति निर्मापयति निर्मार्ण्य च विपुलम् अशनं-पान-खाधम्स्वायम् उपस्कारयति, विपुलम अशनपानं-खाद्यम् स्वाधम् उपस्कार्य ततः पश्चात्-'हाए' स्नातः ‘कयवलिकम्मे' कृतवलिकर्मा-कृतवायसादिभक्ष्यान्न स्थान से उतरकर अपने आप ही दारुमय पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में जाऊगा और वहां पर उच्च, नीच, मध्यम गृहों में अनेक घरों से भिक्षाप्राप्ति के निमित्त चर्या करूंगा, उस समय में सिर्फ भातमात्र ही भिक्षा में लूंगा दाल शाक आदि पदार्थ नहीं। उसे लेकर शुद्ध निदाप गरमजल से अचित्तजल से उन्हें २१ पार धोऊंगा बाद में उन्हें आहार में लूंगा। 'त्ति कटु एवं संपेहेई' इस प्रकार उसने विचार किया 'संपेहिता' एसा विचार करके 'कलं पा उप्पभायाए जाव जलते' उसकी रजनी प्रभातप्राय हो गई अर्थात्प्रातःकाल हो गया और यावत् सूर्थका उदय हो गया तव 'दारुमयं पडिग्गहियं' उसने दारुमय पात्रोको 'करेइ' बनवाया 'करित्ता' पनघा करके फिर उसने 'विउलं असणपाणखाइमं साइमं विपुलमात्रामें अशन पान खाद्य और स्वाध चार प्रकारका आहार रॅधवाया 'उवक्खडावेत्ता' चारों प्रकारका आहार रंधवा करके 'तओ पच्छा' बाद પિતાના હાથમાં જ કાષ્ઠનિર્મિત પાત્રે લઈને તામ્રલિપ્તી નગરીમાં ભિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે ભ્રમણ કરીશ. ત્યાં નીચ, ઉચ્ચ અને મધ્યમ ગૃહ સમુદાયમાં ફરીને ફકત શુદ્ધ ભાત જ વહારી લાવીશ-બીજે કઈ પણ પદાર્થ વહેરીશ નહીં. તે શુદ્ધ ભાતને નિદોષ ગરમ પાણીથી અચિત્ત જળથી ૨૧ વાર જોઈશ. ત્યાર બાદ તે ભાતને મારા આહા२मा उपयोग शश. "ति कह संपेहेइ" तभो मे प्रार! स४६५ ४या. "संहिता" वो स'६५ शन 'कल्लं पाउप्पभाए जाव जलते" न्यारे रात्रि पूरी थमने प्रात: थयो भने सतना तथा अशा सायो त्यारे "दारु. मयं पडिग्गहिय" तभी ना यात्रा "करेड" मनावरायां. "कारत्ता" पात्रा मनावराणीने “ विउलं असणपाणखाइमं साइम" भरे अशन, पान, मा भने स्वाध सारे प्रा२ना भासा मोटा प्रभायमा २ धाव्यां. "उवखडावेता"
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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