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________________ प्रमेयचन्किोटीका श. ३. उ. १ सनत्कुमार देवऋद्धिनिरूपणभू १४७ यथोक्तमेव समृद्धयादिकं स्वसामानिकादिदेवोपरि स्वसत्ताऽऽधिपत्यादिपूर्वक दिव्य भोगभोगशीलत्वं विहरणशालित्वञ्च वर्तते, किन्तु पूर्वदेवापेक्षया वैशिष्टयं पुनरियदेव यस विकुर्वणाशक्त्या वैक्रियरूपनिर्माणेन 'सोलस' पोडश संख्यकान 'केवलकप्पे' केवलकल्पान् सम्पूर्णान् जम्बूद्वीपान् पूरयितुं समर्थः एवं 'सहस्सा रे' सहस्रारेऽपि पूर्ववदेव समृद्रयादिकं स्वाधिपत्यादिकञ्च विज्ञेयम्, विशेष: पुनरेतावानेव यत् स वैक्रियरूपैः 'सातिरेगे' सातिरेकान् साधिकान् 'सोलस' पोडशमंख्यकान् जम्बूद्वीपान पूरयितुं समर्थः । एवं 'पाणएत्रि' माणनंऽपि जैसी है । उस महाशुक्र देवका अपने सामानिक आदि देवोंके ऊपर पूर्णरूप से आधिपत्य आदि सबकुछ है । इस तरह यहां दिव्य भोगोको भोगता हुआ अपना समय आनंद के साथ व्यतीत करता रहता हैं । तथा प्रभुके कल्याणक आदिकों में जाता आता रहता है । परन्तु पूर्वदेवोंकी अपेक्षा इसकी विकुर्वणा शक्ति में अन्तर है और वह इस प्रकार से है कि यह अपनी विकुर्वणा द्वारा निर्मित नानारूपोंसे सम्पूर्ण १६ से।लह जंबूद्वीपोंको पूर्णरूप से भर सकता है। 'एवं सहस्सारे' सहस्रार में भी पूर्वकी तरह ही समृद्वयादिक और अपने सामानिक आदि देवोंके ऊपर आधिपत्यादिक है । परन्तु उनकी विकुर्वणा शक्ति में अन्तर है । इनकी विकुर्वणाशक्ति पूर्वदेवकी अपेक्षा कुछ चढी बढी हैं- इसी कारण ये कुछ अधिक सोलह जंबुद्वीप जैसे विस्तृत क्षेत्रको अपनी विकृर्वणा द्वारा संपाद्य नानारूपों से भर सकने में समर्थ हो सकते है । यद्यपि 'एवं पाणए वि' प्राणतकल्पमें છે. તે મહાશુક્રને ઇન્દ્ર તેના સામાનિક આદિ દેવા પર આધિપત્ય આદિ ભેળવે છે. તે ત્યાં દિવ્ય ભાગે ભાગવે છે તથા પ્રભુના ક્લ્યાણુક આદિમાં આવતે જતેા રહે છે. તે તેની વિષુ ાં શક્તિથી નિમિત વિવિધ રૂપા વડે સેાળ જમૃદ્વીપ જેટલા સ્થાનને ભરી શકવાને સમર્થ છે. તેના સામાનિક આદિક દેવે પણ તેના જેટલી જ વિધ્રુણા શકિત ધરાવે છે. " एवं सहस्सा रे" सहसार देवो नोन्द्र यु गोटसोन समृद्धिशाली छे. તે પણ આગળ વર્ણવેલા ઇન્દ્રોની જેમ જ તેના સામાનિક આદિ દેવો પર આધિપત્ય लोगवे छे. पशु तेनी विदुर्वा शक्तिमां नीचे प्रमाणे विशेषता है- "नवरं साति रेगे सोलसकेवलकप्पे " सहसार हेक्सोनो न्द्र तेनी विदुर्वा शस्तिथी उत्पन्न કરેલાં વિવિધ વૈક્રિય રૂપા વડે સાળ જંબૂદ્વીપ કરતાં પણ વધારે જગ્યાને ભરી શકવાને સમર્થ છે. તેના સામાનિક આદિ દેવેના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવું.
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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