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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. १ कुरुदत्त देवऋद्धि निरूपणम् महर्द्धिकः ? कियच प्रभुः त्रिकुर्वितुम् ? तिष्यकविषयकद्वादशसूत्रान्तेन अंशेन परनाशयो विज्ञेयः । स कुरुदत्तपुत्रनामको नगारः कथं सामानिक देवत्वमापन्नः इति प्रश्नस्योत्तरं ददाति -' एवं खलु देवाणुप्पियाणं' एवं वक्ष्यमाणरीत्या खलु इति निश्वयेन देवानुमियाणाम् 'अन्तेवासी' शिष्यः 'कुरुदत्ते' कुरुदत्तपुत्रनामकोऽनगार:, ' पगड़ भद्दए ' प्रकृतिभद्रकः अनुकूलवृत्तिः स्वभावसरलः, 'जाव - विणीए' यावत् विनीतः 'पगइ भद्दए जाव - विणीए' इत्यत्र यावत्करणात् इदं द्रष्टव्यम् पय उवसंते पग पयणुकोहमाणमायालो हे मिउमदव संपन्ने आलीण मद्दए ' ति । प्रकृत्युपशान्तः स्वभावत एव उपशान्तः " १२७ कति यावत् शब्द के अर्थ की तरह से ही जानना चाहिये - ) तो ईशानेन्द्र का सामानिक देव जो कुरुदत्तपुत्र है वह कितनी बडी ऋद्धि-वाला है और कितनी अधिक विक्रिया करने की शक्ति से संपन्न हैं? ऐसा प्रश्न का आशय है और इस आशय का पूर्णरूपसे स्पष्टीकरण तिष्यकदेव के विषय में किये गये १२ वें सूत्रमें वर्णित प्रश्न से कर लेना चाहिये । कुरुदत्तपुत्र इशानेन्द्र के सामानिक देवके रूपमें किम प्रकारको विधि करनेसे ईशानकल्प में उत्पन्न हुए है इसी बात को सूत्रकारने ' एवं खलु देवानुप्पियाणं अन्तेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं पगFree ' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया हैं । इसमें यह कहा गया है कि वे कुरुदत्तपुत्र आप देवानुप्रियके शिष्य थे । 'पगइभद्दए' स्वभाव से सरल थे- वक्र नहीं थे । यावत् विनीत थे। यहां यावत् शब्द से " पगह उनसंते पाइपयणु को हमाणमाया लोहे मिउमद्दव હકીકત ગ્રહણ કરવી), તેા ઇશાનેન્દ્રના સામાનિક દેવ કુરુદત્ત પુત્ર કેટલી મહદ્ધ (સમૃદ્ધિ) આદિથી યુકત છે? તે કેવી વિધ્રુવ ણા કરવાને સમથ છે ? આ પ્રકારના વાયુભૂતિના પ્રશ્નને આશય છે. તે પ્રશ્નનું વિસ્તૃત સ્પષ્ટીકરણ તિષ્યકદેવના વિષયમાં ૧૨માં સૂત્રમાં કરવામાં આવેલા સ્પષ્ટીકરણ પ્રમાણે સમજવું. હવે સૂત્રકાર એ વાત સમજાવે છે કે કુરુદત્તપુત્ર કેવી તપસ્યા કરીને ઈશાનેન્દ્રના સામાનિક સ્વરૂપે ઉત્પન્ન थया हता. "एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी" इत्यादि सूत्रपाह द्वारा ते વાત સૂત્રકારે પ્રકટ કરી છે. કુરુદત્તપુત્ર ભગવાન મહાવીર સ્વામીના શિષ્ય હતા. “पगइभद्दए” तेथे। अद्रि (सरण) स्वभावना भने विनीत पर्यन्तना गुल वाजा हता. महीं' 'यावत्' पहथी नीथेनां विशेषशेो श्रणु शयां छे " गइ उवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोहे मिउमदवसंपन्ने आलीणभद्दए " तेथे उपशान्त वृत्तिवाजा हता. मेघ, भान, भाया, मने बोल३य यारे
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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