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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. १ ज्योतिन्द्र ऋद्धिविपये गोतमस्य प्रश्नः ७९ च्येन्द्रविपये चन्द्रविषये च वायुभूतिः भगवन्तं महावीरं पृच्छति तदाह-'दाहिगिल्ले सम्वे अग्गिभूइ पुच्छइ, उत्तरिल्ले सन्वे वाउभूई पुच्छ." ति ॥९०८॥ देवराजशकेन्द्रस्य समृद्धिविकुणाशयादिवक्तव्यता मस्तूयते-'भंते इत्यादि मूलम्-भंते ! त्ति भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूइ अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासी-जइणं भंते! जोइसिंदे जोइसराया एवं महिडीए, जाव -एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, सक्केणं भंते ! देविदे, देवराया केमहिड्डीए, जाव-केवइयं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! सकेणं देविंदे, देवराया महिड्डीए, जाव-महाणुभागे, से णं वत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं, जाव-चउण्डं चउरासीणं आयरक्खसाहस्सीणं, अन्नेसिं जाव-विहरइ, एवं महिडीए, जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियवं, नवरं-दो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेस तं चेव, एस णं गोयमा! सकस्स देविदस्स, देवरणो इमेयारूवे विसए विसयमेत्तेणं वुइए, नोचेव णं संपत्तीए विकुविंसुवा, विकुबइ वा, विकुव्विस्सइ वा ॥ सू० ९ ॥ १६ हजार आत्मरक्षक होते है । और अग्रमहिपियां यहां चार ४ होती है । विशेपता केवल इतनी ही हैं कि इन सबमें जो दक्षिणनिकायके इन्द्र है उनके विपय में और सूय के विपय में अग्निभूति पूछते हैं और उत्तरनिकाय के इन्द्र है उनके विपय में एवं चन्द्रमा के विपय में वायुभूति भगवान् महावीर से पूछते है । इसी बात को मूत्रकार ने "दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छइ उत्तरिल्ले सवे नाउभूई पुच्छह ति इस पाठसे प्रकट किया है ॥ सू० ८ ॥ કે દરેકના દક્ષિણનિકાયના ઇન્દ્ર વિષે અને સૂર્ય વિષે અગ્નિભૂતિ પ્રશ્ન પૂછે છે અને ઉત્તર નિકાયના ઈન્દ્ર વિષે અને ચંદ્રમા વિષે વાયુભૂતિપ્રશ્નો પૂછે છે સૂત્રકારે એજ વાત नायना सूत्रमा प्र४८ ४३ छ-" दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छइ, उत्तरिल्ले सव्वे वाउभूई पुच्छइ ति" सू.८ ॥
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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