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________________ प्रमेयचन्टिकाटीका श.३३.१ धरणेन्द्र ऋदि विपये गौतमस्य प्रश्न: समाना एव सामानिकदेवादयो योध्या: 'एवं धरणे णं नागकुमारराया महिड्डीए जाव-एवतियं जहा चमरे तहा धरणेऽवि" एवं धरणः खलु नागकुमारराजा महर्दिकः यावत् एतावच यथा चमरः तथा धरणोऽपि । किन्तु 'नवरं' एतावान् विशेपो यत्-'संखेज्जे' संख्येयान् 'दीचे' द्वीपान् 'समुद्दे । समुद्रान् वैक्रियसमुद्घातेन निर्मितरूपैः पूरयितुं सामर्थ्य मिति सूचयानाह-'भाणिय वे' भणितव्यम् कथयितव्यम्-विज्ञेयमिति यावत् । एवं प्रकारेण चमरधरणेन्द्रवदन्येपामपि हरि-वेणुदेव - अग्निशिख-वेलम्ब-सुघोपजलकान्त-पूर्ण-अमितानां दाक्षिणात्यामुरकुमारेन्द्राणां, बलिभिनानाञ्चौदीच्यानां भूतानन्द-हरिसह-वेणुदारी-अनिमाणव-वशिष्ट-जलपभ-अमितवाहनकरते हुए सूत्रकार कहते हैं एवं धरणेणं नागकुमारराया महिडीए जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणे वि' किन्तु चमरकी विकुर्वगामें और धरणेन्द्रकी विकुर्वणामें जो अन्तर है वह 'नवरं' इस प्रकारसे है यह बात इस पद द्वारा प्रकट की जा रही है- 'संखेज्जे दीवे समुह भाणियब्वे चमर अपनी विक्रियो शक्तिसे निप्पादित देवों एव देवियों द्वारा पूरे जंबूरोपको और तिर्यग्लोकमें असंख्यातदीप समुद्रांको भरनेकी क्षमतावाला है, तय कि यह धरणेन्द्र ऐसा नहीं है यह तो इतनी क्षमतावाला है कि तिर्यग्लोक संबंधी संख्यात द्वीपो और समुद्राको भर सकता है। असंख्यातोको नहीं। इसी प्रकारसे चमर धरणन्द्रकी तरह हरि, वेणुदेव, अग्निशिख, वेलम्ब, सुघोप, जलकान्त, पूर्ण और अमित इन दक्षिणनिकायके असुरनिकाय इन्द्रोंको, तथा बलिभिन्न उत्तरनिकायके भूतानंद, हरिसह, वेणुदारी, अग्निमाणेव, वशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोप इन इन्द्रोंकी समृद्धि, एवं धरेणेणं नागकुभारराया महिडीए जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणे वि" मा शते यम२ मने पानी सद्धि माह तथा विgal ति स२भी छ 'नवरं' ५ तेमनी विए। शठितम नाय प्रभा तापत छ- संखेज्जे दीव समुद्दे भाणियन्वे" यभर तनावश्या तिथी सत्पन्न ४२ वा मन हवामा વડે સમસ્ત જબૂદ્વીપને તથા તિર્થકના અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને ભરી દેવાનું સામર્થ ધરાવે છે પણ ધરણેન્દ્ર તે તિયકના સંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રોને ભરી શકવાને સમર્થ છે – અસંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રોને નહીં એ જ પ્રમાણે હરિ વેણુદેવ, અગ્નિ શિખવેલમ્બ, સુઘેલ જલકાન્ત પૂર્ણ અને અમિત એ દક્ષિણનિકાયના ઇન્દ્રોની તથા ઉત્તરનિકાયના બલિ. ભૂતાનંદ હરિસહ વેણદારી અગ્નિમાંણવ વશિષ્ટ જલપ્રભ અમિત
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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