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________________ १० "तेर्सि नमो तेर्सि नमो, भावेण पुणो तेसिचेव णमो । रहस्य. जे नाणं देति भव्वाणं " ॥१॥ खाण - तेभ्यो नमः, तेभ्यो नमः, भावेन पुनस्तेभ्य एव नमः । परनिरता ये ज्ञानं ददति भव्येभ्यः ॥ १ ॥ इति । इति तृतीय स्थानम् ३। चातुर्वर्णस्य वर्णवादी यथा"वनियमसमंजनः विणयज्जवसंविमुत्तिगुणजुत्तो । लोओ, स जयड संघो चाउव्वण्णो ॥ १ ॥ छायातपो नियमसत्यसंयम विनयार्जवक्षान्तिमुक्तिगुणयुक्तः । शीलशीकनलोकः स जयति सङ्घतुर्वर्णः ॥ १॥ इति । इति चतुर्थ स्थानम् | देववर्णवादी यथा है, अतिशय रूप रत्नोंका समुद्र है, समस्त जगजीवोंका अनोखा बन्धु है, यह गृहस्थ धर्म और मुनिधर्मके भेदसे दो प्रकारका है, इस प्रका स्का वह द्वितीय स्थान है, आचार्य उपाध्यायका वर्णवाद इस प्रकार से है-" तेमि नमो तेर्सि नमो " इत्यादि । उन आचार्य उपाध्यायोंको मेरा मन वचन कापरूप भावसे बारथार नमस्कार से जो बिना किसी चाहना के परका हित करनेमें लगे रहते ऐ, और निर्मल ज्ञानका दान देते हैं, ऐसा यह तृतीय स्थान है, चतुपूर्ण वर्णवाद हम प्रकार से है (( तव नियम सच्च संगम ' इत्यादि । जो चतुर्विध संघ तप, नियम, सभ्य, संगम, विनय, आर्जव. क्षान्ति, मृग आदि गुणांक, और जिसने शीलसे लोकको वशमें कियाहै, ऐसा यह चतुर्विध श्रीमंच मदा जयशील रहो इस प्रकारका यह चतुर्भ स्थान है, I સાગર છે. તે સમસ્ત મસાી વેના અનેખા બન્ધુ છે, તે ગૃહસ્થ ધ અને અનિગમતા ભેથી એ પ્રકારને છે ** પાન-આચય અને ઉપાધ્યાયને વણ વાદ કરવાથી જીવ સુલભ ટૉ ચિત્રો બને છે. તેમની સ્મૃતિ આ પ્રમાણે કરી શકાય " तेसि नमो વિ એ નિષ્કામ ભાવે પચિનના કાર્યમાં પ્રવૃત્ત निर्माण ज्ञाहता है, ना आयार्यो भने अध्यायोन कने नगधी नाश कर नन्हकार से " ૧૯ स्थानाङ्गसूत्रे 7 A Cart नि छ मनु भनी पाथी મને અન્ય કુ છૅ, ચર્વિધ સંઘની આ પ્રમાણે સ્મૃતિ निम, नियम, नृत्य, भयम, विनय, आव, થી મુક્ત છે, અને જેણે શીલથી લેાકને વશ श्रीमती भुजय . "
SR No.009310
Book TitleSthanang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages773
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size43 MB
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