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________________ ४२६ स्थानाङ्गसूत्रे } " कप्पंती " - त्यादि - " निर्ग्रन्थीनाम् " ग्रन्थो बन्धहेतुः - हिरण्यसुवर्णादिर्मिध्यात्वादिव तस्मान्निष्क्रान्ता निर्ग्रन्थयः ( शार्ङ्गवादेराकृतिगणतया छीन् ) तासां निग्रन्थीनां = साध्वीनां चतस्रः = चतुः संख्याः, संघाटयः = उत्तरीय वस्त्रविशेषाः, धारयितुं कल्पन्त इत्यन्ययक्रमः, ताचतुर्विधाः सङ्घाटीः क्रमेणोपदर्शयितुमाह" तद्यये " - त्यादि, एका = प्रथमा संघाटी, द्विहस्तविस्तारा - द्वौ हस्तौ विस्तारः आयामो दैर्ध्य यस्याः सा तथाभूता, सा कल्पते १, एवं ' दो -द्वे, तिहत्थवित्थारा - त्रिहस्तविस्तारे - त्रिहस्तप्रमाणाऽयामे संघाटयौ धारयितुं कल्पेते इत्यर्थः ३, “ एगाचउद्दत्थवित्थारा " - एका = अपरा चतुर्हस्तविस्तारा धारयितुं कल्पते, तत्र प्रथमा द्विहस्तविस्तारा संघाटी - उपाश्रये धारणीया १, द्वितीयतृतीये - त्रस्त विस्तारे द्वे कथिते, तत्रैका भिक्षाटनकाले धार्या, अपराच स्थण्डि• 66 15. हिरण्य सुवर्ण आदिरूप बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्वादिरूप अन्तरंग परिग्रह इन दोनों प्रकार के परिग्रह से साध्वीजन निष्क्रान्त रहित होते हैं अतः वे निर्ग्रन्थी कहलाती हैं। साध्वीजनों को चार उत्तरीय वस्त्रविशेष चादर कल्पनीय कहे गये हैं । दो हाथ की लम्बाई चौडाई होती है ऐसा जो उत्तरीय वस्त्र - चादर है वह प्रथम सङ्घाटी में लिया गया है। तीन हाथ की जिनकी लम्बाई चौडाई है ऐसे दो वस्त्र द्वितीय और तृतीय सङ्घाटी में लिये गये हैं। चार हाथ जिनकी लम्बाई चौडाई होती है - ऐसा एक वस्त्र चौथी सङ्घाटी में लिया गया है। ये चार चादर साध्वीजनों को धारण करने के योग्य कहे गये है, इनमें जो प्रथम प्रकार की सचाटी है वह तो उन्हें उपाश्रय में ही धारण करने योग्य कही गई है। द्वितीय और तृतीय प्रकार की जो सङ्कोटी हैं इन दोनों में एक भिक्षाटन के समय में धारण करने योग्य कही गई " कप्पति ” इत्यादि - द्विस्य सुवाणु आदि ३५ माह्य परिस्थी मने મિમ્યાત્વ આદિ રૂપ અન્તર’ગ પરિગ્રહથી સાધ્વીએ રહિત હાય છે, તેથી તે સાધ્વીઓને નિગ્રંથીઓ કહેવામાં આવે છે. તે સાધ્વીઓને ચાર ઉત્તરીય વસ विशेष ( यार ) ये छे तेमने के यार संघाटीओ ( शाहरो ) ये छे, તેનુ` સૂત્રકાર હવે નિરૂપણ કરે છે— (1) मे हाथनी समावाजा उत्तरीय वसने ( याहरने ) प्रथम संधाટીમાં પરિગતિ કરવામાં આવ્યું છે. (૨) ત્રણ હાથની લખાઈના એ વસ્રોને દ્વિતીય અને તૃતીય સંઘાટીમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. (૩) ચાર હાથની લખાઈવાળા એક વસ્ત્રને ચેાથી સઘાટીમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. આ ચાર પ્રકારની ચાદર સાધ્વીઓને ધારણ કરવા ચેાગ્ય કહી છે તેમાંથી જે પહેલા પ્રકારની સ'ઘાટી કહી છે, તે તે તેમને ઉપાશ્રયમાં જ ધારણુ કરવા ચૈગ્ય કહી છે. ખીજા અને ત્રીા પ્રકારની જે એ સ ઘાટીએ કહી છે તેમાંથી એક ભિક્ષા
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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