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________________ सुधा टीका स्था०१ 30 १ सू० २२ पापस्वरूपनिरूपणम् । स्वात् दुःखप्रकर्षानुभूतिवत् । यथा दुःखपकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापप्रकर्ष जनितेति स्वयाऽभ्युपगम्यते, तथा सुखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्म प्रकर्प जनिता भविध्यति । इत्थं च सुखकारणत्वेन पुण्यं स्वीकर्तव्यमेवेति ॥ सू०११ ॥ अथ पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापं प्ररूपयति-- मूलम्--एगे पावे ॥ सू० १२ ॥ छाया-एकं पापम् ॥ सू० १२ ॥ व्याख्या-'एगे' इत्यादि। पापम्-पांशयति-मलिनयति-सरजस्कं करोत्यात्मानमिति पापम् । यद्वापातयति-प्रक्षिपनि नरकादिषु जीवानिति पापम् । तच्च एकम् एकत्वसंख्यावत् । उत्पन्न होती है क्यों कि वह प्रकर्षानुभूति रूप होती है । जैसे दुःख प्रकर्षानुभूति, दुःखप्रकर्षाभूति स्वानुरूप पाप के प्रकर्ष से जनित होती है ऐसा स्वीकार किया गया है तो इसी तरह से यह भी स्वीकार करना चाहिये कि सुखप्रकर्षानुभूति भी स्वानुरूप पुण्यकर्म के प्रकर्ष से जनित होगी इस तरह से सुख का कारण होने से पुण्यतत्त्व स्वतंत्र तत्व है ऐसा स्वीकार करना ही चाहिये ॥ सू० ११ ॥ पुण्य के प्रतिपक्षभूत पाप की प्ररूपणा इस प्रकार से है " एगे पावे" इत्यादि ॥१२॥ मूलार्थ-पाप एक है ।१२।। टीकार्थ-जो आत्मा को "पांशयति" मलिनकरता है वह पाप है। अथवा-"पातयति" जो आत्मा को नरकादिकयोनियों में डालता है वह पाप है यह पाप एक है एकत्व संख्या विशिष्ट है इन कथित હેય છે, જેમકે દુ ખપ્રકર્ષાનુભૂતિ, દુઃખ,કનુભૂતિ તેને અનુરૂપ પાપના પ્રકથી જનિત હોય છે એ સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે, તે એ વાતને પણ સ્વીકાર કરે જોઈએ કે સુખપ્રકર્ષાનુભૂતિ સ્વાનુરૂપ (તેને અનુરૂપ) પુણ્યકર્મના પ્રકર્ષથી જનિત હશે. આ રીતે સુખનું કારણ હોવાથી પુણ્યતત્વ સ્વતત્ર તત્વ છે, એ સ્વીકાર કરવો જ જોઈએ. એ સૂ૦૧૧ પુણ્યના પ્રતિપક્ષભૂત પાપની પ્રરૂપણુ આ પ્રમાણે છે – " एगे पाने" त्यादि सूत्रार्थ-पा५ ४ छे. At-2 मात्भाने “ पांशयति" भलिन ४२ छ ते ५५ छे. अथवा " पातयति " २ मामाने न२४६४ योनिमा नामे छे, ते ५.५ मे छे. २
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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