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________________ सुधा टीका स्था० २ उ० १ सू०२० प्रव्रज्यादियोग्यदिग्दैविध्य निरूपणम् ३२५ टीका' दो दिमाओ ' इत्यादि द्वे दिशे अभिगृद्य = अङ्गीकृत्य तदभिमुखी भूयेत्यर्थः, निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा द्रव्यभावपरिग्रहरहितानां कल्पते प्रत्राजयितु-सदोरक मुखव स्विकारजोहरणादिदानेन प्रव्रज्यां सावध - विरतिरूपां दातुं ग्रहीतुं वा । के ते द्वे दिशे ? इत्याहतद्यथा- प्राचीनां प्राचीं पूर्वादिशमित्यर्थः, तथा उदीचीनाम् - उदीचीम् उत्तरां दिशमित्यर्थः । एवम् - अमुना प्रकारेण मुण्डयितुम्, मुण्डनं द्रव्यभात्रभेदेन द्विविधम्, तत्र - द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन, भावतः कषायापनयनेन । शिक्षयितुं = ग्रहण शिक्षा पेक्षया सूत्रार्थी ग्राहपितुम् आसेवनशिक्षापेक्षया प्रतिलेखनादिक्रियामा सेवयितुं= " Codpis भव्य जीवों का कथन करके अब भव्यविशेषों को जो कर्तव्य उचित है उसका सूत्रकार कथन करते हैं " दो दिसाओ अभिगिज्झ " इत्यादि ॥ २० ॥ टीकार्थ- दो दिशाओंकी तरफ मुँह करके द्रव्यपरिग्रह और भावपरिग्रह से रहित निर्ग्रन्थों को तथा निर्ग्रन्थिनियों को सदोरक मुखवस्त्रिका रजोहरण आदि चिह्नवाली सावद्यविरतिरूप प्रव्रज्या लेना अथवा देना योग्य है वे दो दिशाएँ हैं - एक पूर्वदिशा और दूसरी उदीची दिशा इसी प्रकार इन्हीं दो दिशाओं की ओर मुँह करके द्रव्यभावरूप से मुंडित होना योग्य है केशादिकों का लुञ्चन करना यह द्रव्यमुंडन है और कषायों का अपनयन (दूर) करना यह भावमुंडन है इसी प्रकार पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुँह करके शिष्यजनों को ग्रहण शिक्षा की अपेक्षा सूत्र और अर्थ को सिखलाना योग्य है तथा आसेवनशिक्षा की अपेक्षा प्रतिलेखनादि ભવ્યજવાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ભવિશેષાના ઉચિત કર્તવ્યની अ३५ ४२ हे " दो दिसाओ अभिगिज्झ " इत्यादि ॥ २० ॥ ટીકા –મે દિશાઓની તરફ મુખ કરીને, દ્રવ્યપરિગ્રહ અને ભાવપરિગ્રહથી रडित सेवा निर्थथे। (साधुओो) भने निर्ग्रथिनियोगे (साध्वीमेोमे) सहोर भुપત્તી, રોહરણ આદિ ચિહ્નવાળી સાવદ્ય વિરતિ રૂપ પ્રત્રજયા લેવી અથવા देवी ते योग्य छे. ते में दिशाओ मा प्रभा छे - (१) आथी ( पूर्व ) अने (૨) ઉદીચી ( ઉત્તર ). એજ એ દિશા તરફ મુખ કરીને દ્રવ્યભાવ રૂપે સુડિત થવું ચાગ્ય છે. કેશાદિકાના @ચનને દ્રવ્યમુંડન કહે છે. અને કષાયાને દૂર કરવા તેનું નામ ભાવમુંડન છે. એજ પ્રમાણે પૂર્વ અને ઉત્તર દિશા તરફ મુખ કરીને શિષ્યાને ગ્રહણુશિક્ષાની અપેક્ષાએ સૂત્ર અને અથ શિખવવા એ પણુ ચેાગ્ય છે, અને આસેવનશિક્ષાની અપેક્ષાએ પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયાઓ કરવી,
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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