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________________ ३१६ स्थानासूत्रे प्रोक्तः । ' दुविहे आगासे ' इत्यादि - आकाशन्ते - दीप्यन्ते स्व स्वधर्मोपेता जीवा दयः पदार्थो यत्र तद् आकाशम् । यद्वा- आसमन्तात् काशन्ते - दीप्यन्ते सर्वाव्यपि द्रव्याणि व्यवस्थिततया यत्रेति - आकाशम् । अथवा-आ-मर्यादया- तत्संयोगेऽपि स्वकीयस्वकीयरूपेऽवस्थानतः सर्वथा तत्स्वरूपत्वाप्राप्तिलक्षणया काशन्ते= स्वभावला भेनावस्थितिकारणेन च दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तद् आकाशम् । अत्रगादानाद्वा आकाशम् ' नहं ओगाहलक्खणं ' इति वचनात्, लोकालोकव्याप्यभी यहां द्विस्थान के अनुरोध से दो प्रकार का ही काल कहा गया है । " दुविहे आगासे " इत्यादि । अपने २ गुणपर्यायरूप धर्म से युक्त जीवादिक पदार्थ जहाँ प्रकाशित होते रहते हैं वह आकाश है अथवा समस्त द्रव्य व्यवस्थितरूपसे जहाँ पर विद्यमान रहते हैं एक द्रव्य जहां दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता है इसका नाम आकाश है अथवा जहां अपने २ स्वरूप में प्रत्येक पदार्थ रहता है एक दूसरे के साथ संयोग होने पर भी जो एक दूसरे के स्वरूप में नहीं बदलता है - ऐसे स्थान का नाम आकाश है अथवा जो समस्त जीवादिक द्रव्यों को रहने के लिये स्थान देता है वह आकाश है । उक्त च- अवगादाण जोगं " इत्यादि । 66 “ नहं ओगाह लक्खणं " यह आकाश वह द्रव्य है जो लोक और अलोक में व्याप्त होकर है तथा जिसके अनन्तप्रदेश हैं और जो अमूर्त है यह लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का है आकाश के 66 આ રીતે એ કાળેા સિવાય એક સદા અવસ્થિતરૂપ કાળ પશુ હોય છે, છતાં પણ અહીં એ સ્થાનના અનુરાધની અપેક્ષાએ કાળના બે પ્રકાર જ કહેવામાં આવ્યા છે. दुविहे आगासे " धत्याहि पोतपोताना पर्याय ३५ धर्भथी युक्त જીવાર્દિક પદાર્થ જ્યાં પ્રકાશિત રહે છે, તે સ્થાનનું નામ આકાશ છે. અથવા સમસ્ત દ્રવ્ય વ્યવસ્થિત રૂપે જ્યાં મેજુદ રહે છે, એક દ્રવ્ય જ્યાં અન્ય દ્રવ્યેારૂપ હાતું નથી તે સ્થાનને આકાશ કહે છે. અથવા જ્યાં પ્રત્યેક પદા પેાતપેાતાના સ્વરૂપે રહે છે. એક બીજાની સાથે સચેાગ થવા છતાં પણ જે એક બીજાના સ્વરૂપમાં બદલાતાં નથી, એવા સ્થાનનું નામ આકાશ છે. અથવા જે સમસ્ત જીવાને રહેવાને માટે સ્થાન દે છે, તેને આકાશ કહે છે. કહ્યું પણુ छे - " अवगासदाण जोगं " त्याहि. "नहं ओगाह लक्खणं” मा आश खेबुं द्रव्य हे ने सोने असमां व्यास छे. तेना अनन्त अहेश छे भने ते अभूर्त छे, तैना में लेड छे-(१)
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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