SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ધઈટ सूत्रकृतागसूत्रे मूलम्-दीसंति समियायारा भिक्खुणो साहजीवियो। एए मिच्छोरजीवंति ईइ दिटिं न धारए ॥३१॥ छाया--दृश्यन्ते संमिताचारा भिक्ष साधु नीविनः । एते मिथ्योपजीवन्ति, इति दृष्टिं न धारयेत् , अन्वयार्थः-(साहुजीविणो) साधुनीविनः (समियायारा) समितावारा:-संयमादिमन्तः (भिक्खु गो) भिक्षा-निरवद्यमिक्षणशीलाः (दीसंति) दृश्यन्ते (एए. करने योग्य कहने से हिंसा का अनुमोदन होता है और अवध्य कहने से अपराध का अनुमोदन तथा राजकीय कानून का विरोध होता है। अतएव ऐसे प्रसंग पर साधु को मौन ही रहना चाहिए ॥३०॥ 'दीसंति समियायारा' इत्यादि शब्दार्थ-'साहुजीविणो-साधुजीविनः' निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा 'समियायारा-समिताचारा' यतना पूर्वक आचरण करनेवाले 'भिक्खुणो-भिक्षवः' निरवध भिक्षा ग्रहण करने वाले पुरुष 'दीसंति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं 'एए मिच्छोवजीवंति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तव में ये मिथ्याचारी हैं अर्थात् कपट पूर्वक आजीविका करते हैं 'इइ दिहि न धारए-इति दृष्टिं न धारयेत्' इस प्रकार की दृष्टि धारण करनी नहीं चाहिए ॥३१॥ __ अन्वयार्थ-निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा यतनापूर्वक તે કેવળ દયાને માટે જ પ્રયત્ન કરતા રહેવું. અપરાધીને વધ કરવાને ચિગ્ય કહેવાથી હિસાનું અનુમોદન થાય છે, અને અવધ્ય કહેવાથી અપરાધનું અનુમાન અને રાજકીય કાયદાને વિરોધ થાય છે તેથી જ આવા પ્રસગે સાધુએ મૌન જ ધારણ કરવું જોઈએ એજ ઉત્તમ માર્ગ છે. ૩૦ . .. 'दीसंति समियायारा' त्यादि ..। शहाथ-'साहुजीविणो-साधुजीविनः' निष पा५ पर्नु त 'पात वा तथा ''समियायारा-समिताचाराः' यतना' माय२६ ४२१॥ 'पian. भिक्खुणो-भिक्षव.' निरq man aपापा ५३. 'दीसंति-दृश्यन्ते' नवामा मावे छे. - 'एए मिच्छोवजीवति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तवि रीत तमा मिथ्यायारी छ, अर्थात् ४५८ पूर्व माqि४ ४२ छ, 'इइ दिद्धिन धारए-इति दृष्टि न धारयेत्' मा प्रभानी र घार ४२वी न . ॥३१॥ : - અન્વયાર્થ_નિષ્પાપ જીવન વિતાવવાવાળા તથા યતના પૂર્વક આચરણ
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy