SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 5 णिसिरेज्जा' शस्त्रं नि सृजेत् ' से सामगं वर्णगं कुमुदगं वीहिं उसियं कठे सूर्यof छिदिसानि चिकट्टु स पुरुषः श्यामाकं तृग कुमुदकं व्रतं कले सुकं गम् एते विशेः तानि छेत्स्यामीति कृत्वा 'साठवावी वाक वाकं वापर बाराल वा छिंदिता भाई' शालि वा वीहि वा कोद्रवं वा - कगुं वा परकं वा-२ - रालंना- छेतुं भवति, 'इति खल से अनहस अट्ठाय अन्नं फुसई' इति खलु सः अन्यस्य अर्थाऽन्यमेव स्पृशति - हिनस्ति; 'अम्हादंडे' अकस्मादृण्डो भवति । पिकः क्षेत्रात् स्वाभिमतत्रादीनां वर्धनाय अनभिमत-तृणादिकमपनेतु मिच्छन् तृणान्तरमपनेष्यामीति मनसि निधाय उत्तंगकर्तनाय शस्त्रं चालयति, परन्तु दृष्टिमान्यात् 'छेथाऽपेक्षया छेयस्यैवाऽन्यस्य कर्तनमभूदिति स . - अकस्माद्दद्दण्डो भवति । वस्तुतस्त्वत्र कृपिकस्य नासीन्मनोऽन्यस्य उगे हुए घास को उग्वाड रहा है । उपने किसी घामको उखडने के लिए शस्त्र (खुरपा ) चलाया और सोचा कि मैं ग्रामाक, तृग, कुपुदक, व्रीहि, कलेसुक आदि किसी घास को उखाड़ किन्तु घास के बदले शालि, व्रीहि, कोद्रव, कंगु, परग या रालय धान्य में ही शस्त्र लग जाता है और वह उखड जाना है। इस प्रकार वह घाम के बदले धान्य को ' उखड लेना है तो यह अकस्मात्दंड हुमा । ' } 1 तात्पर्य यह है कि कोई किसान अपने खेत में शालि आदि धान्य की वृद्धि के लिए अवांछनीय घाम फूल को उखाड़ देना चाहता है और उसको उखाड़ने के लिए शस्त्रका प्रयोग करता है, किन्तु दृष्टिदोष या असामानता के कारण वह शस्त्र वाम में न लगकर धा के पौधे में लग जाता है और धान्य का पौधा उखड जाता है। इन प्रकार जिसे उखडने का विचार किया था, वह न उखड कर धान् - ४४, विगेरे । मे धामने उडु, परंतु घासने से शश्री, श्रीही, કાદરા, કાંગ વગેરે ધાન્યમાં જ ખરપડી લાગી જાય, અને તે ધાન્યને છે. ઉખડી જાય, આ રીતે તે ઘસને ખલે ધાન્યને ઉખાડી લે છે, તે આ અકસ્માત્ દડે કહેાય છે " તાપય એ છે કે—કેાઈ ખેડુત પેાતાના ખેતરમાં શાલી-ડાંગર વિગેરે અનાજને વધારવા માટે વધારે-પડતા અનિચ્છનીય, ઘાસ-ને ઉખેડવા ઈચ્છે છે, અને તેને ઉખેડવા માટે શસ્ત્ર ચલાવે છે, પરંતુ દૃષ્ટ દષે અથવા અસાવધાનપણાને કારણે તે શસ્ર ઘાસમાં ન લાગતાં ધાન્યતા છે।ડમાં લાગી જાય, અને અનાજને છોડ ઉખડી જાય. આ રીતે જેને ઉખાડાના વિચાર
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy