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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६७३ अन्वयार्थः-(जे उ) ये तु पुरुषाः (समाहिजुत्ता) समाधियुक्ताः (केरलेणं) केवलेन ज्ञानेन (लोयं) लोकम्-चतुर्दशरज्ज्वात्मकम् (विजाणतीह) इह विजानन्ति तथा-(पुन्नेण नाणेग) पूर्णेन ज्ञानेन (समत्तं) समस्तम्-सम्पूर्णम् (धम्म) धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् (कहंति) कथयन्ति, ते (तिन्ना) संसारातीर्णा: (अप्पाणं परंच तारंति) आत्मानम्-स्वात्मानं परञ्च तारयन्ति संसारादिति ॥५०॥ टीका-मुनिराकोऽनया गाथया पतिपादयतीदम्-य: केवलज्ञानी स एवं वस्तुतवं वस्तुतो जानाति । अतः स एव जगतो हिताय धर्ममुपदेष्टुमर्हः। उपदिश्य चात्मानं परञ्च संसारात्तारयति, नान्य इति । अक्षरार्थस्त्वेवमाइ-तथाहि -'जे समदिजुत्ता' ये समाधियुक्ताः 'इह पुन्नेण' पूर्णेन 'केवलेण नाणेण' केवलेन इस लोक में सम्पूर्ण 'धम्म कहंति-धर्म कथयन्ति' श्रुनचारित्र रूप धर्म का उपदेश करते हैं 'ते तिन्ना-ते तीः ' वे तिरे हुवे हैं अर्थात् संसार से स्वयं तरते हैं तथा 'अप्पाणं परंच तारंति-आत्मानं परञ्चापि तारयन्ति' अपने स्वयं तिरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ । अन्वयार्थ-जो पुरुष समाधि से युक्त हैं तथा पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक को जानते हैं और जानकर धर्मोपदेश करते हैं, वे संसार से तिरे हुए हैं अर्थात् वे संसार से स्वयं तैरते हैं तथा दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ टीकार्थ- आद्रक मुनि इस गाथा के द्वारा यह प्रतिपादन करते हैंजो केवलज्ञानी है वही वास्तव में वस्तुस्वरूप को जानता है। अतएव वही जगत् के हित के लिए धर्म का उपदेश करने के योग्य है। वह धर्मोपदेश करके स्वपर को संसार से तारता है, अन्य नहीं। इस कथन श्रतयारि ३पनी वृति धमनी अपहेश माथे छे. 'ते तिन्ना-ते तीर्णाः' मे। तरा छे. अर्थात् तसा पोते ससारथी तरे छे. 'अप्पाणं परंच वार'ति-आत्मान' तथा परश्चापि तारयन्ति' पाताने तथा भीमान ५ तारे छे. ॥५०॥ અન્વયાર્થ—જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, તથા પૂર્ણ કેવળ જ્ઞાન દ્વારા સંપૂર્ણ લેકને જાણે છે, અને જાણીને ધર્મોપદેશ કરે છે. તેઓ પોતે સંસારથી તરેલા છે, અર્થાત્ સંસારથી સ્વયં તરે છે અને બીજાઓને પણ તારે છે. આપા ટીકાર્ય–આદ્રક મુનિ આ ગાથા દ્વારા એ પ્રતિપાદન કરે છે કે જેઓ કેવળ જ્ઞાની છે, તેઓજ વાસ્તવિક રીતે વસ્તુ સ્વરૂપને જાણે છે. તેથી જ તેઓ જગતના પરમ કરયાણને માટે શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ કરવાને ચગ્ય છે. તે सु० ८५
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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