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________________ सार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगशालकस्य संवादनि० ६०९ अन्वयार्थः -- आर्द्रको गोशालक प्रति कथयति - भोः ! (वणिया ) वणिजःव्यापारकर्त्तारः (भूयगामं) भूतग्रामं - माणिसमुदायम् ( समारभंते ) समारभन्तेआरम्भसमारम्भं कुर्वन्ति, तथा - (परिग्ग) परिग्रहम् (चेव ) चैत्र (ममायमाणा) ममीकुर्वन्ति - अर्थात् - परिग्रहेऽपत्यदारधनादौ ममेत्यहंकारं व्रजन्ति - ममत्वबुद्धि दधतीत्यर्थः, (ते) ते वणिजः (णाइसंजोगमविष्पहाय ) ज्ञातीनां परिवाराणां संयोगं यथायथ स्वस्वामिभावादिसम्बन्धम् अविपहाय - अश्यकत्वा (आयस्प देउ) आयस्य- मूलद्रव्यतो लव्धस्याः वृद्धे हैतौ (संग) सङ्गम् - अयोग्यैरपि सह सम्बन्धम् (पगरंति) प्रकुर्वन्ति, वणिजस्तु यथायथ व्यापारं कुर्वन्तः घातयन्ति जीवान् 'वणिया - वणिजः' व्यापारी लोग 'भूयगामं- भूतग्रामं' प्राणी समूहका 'समारभंते - समारभन्ते' आरंभ समारंभ करते हैं तथा 'परिग्गहं चेव - परिग्रह चैव' परिग्रह के ऊपर 'ममाघमाणा - ममीकुर्वन्ति' ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र, धन, आदि पर ममत्वभाव धारण करते हैं 'ते - ते ' वे वणिक् जन 'नाइस जोगमविपहाय - ज्ञातिसंयोगमविप्रहाघ' पारिवारिक जनों के संयोगको अर्थात् स्वस्वामी संबन्धको त्याग न करते हुए 'आवस्य हेउ - आयस्स हेतो:' लाभ के लिए 'संग-सङ्गम्' संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी संबंध 'पगरंतिप्रकुर्वन्ति' करते हैं ॥ २१॥ अन्वयार्थ -- आर्द्रा के पुनः गोशालक से कहते हैं - हे गोशालक ! व्यापारी लोग प्राणिसमूह का आरंभ समारंभ करते हैं तथा परिग्रह पर ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र धन आदि पर ममत्व भाव धारण करते हैं । वे पारिवारिक जनों के संयोग को अर्थात् स्वस्वामी 'वणिया - वणिजः' वेपारीयो 'भूयगाम' - भूतग्राम' आशी समूहना 'समारभतेसमारभन्ते' माल भने समारंभ ४रे छे तथा 'परिग्गह' चैव परिग्रह चैव' परिग्रहनी ५२ ' ममायमाणा - ममीकुर्वन्ति' भमता राणे हे अर्थात् पुत्र, पुत्र धन, विगेरे उपर भभत्वलाव धार रैछे 'ते - ते' ते वेपारीये 'नाइसंजोगम विप्पहाय - ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' परिवारना माणुसोना सयोगने अर्थात् स्वस्वामी संभधना त्याग न त 'आयस्थ हेउ - आयस्य हेतो.' साल भाटे 'संगसङ्गम्' समधन ४२वाने योग्य सोहोनी साथै पशु संबंध 'पगरति-प्रकु वन्ति' ४२ छे. ॥२१॥ અન્વયા --આ કીથી ગોશાલકને કહે છે હું ગોશાલક વ્યાપારી લેકે પ્રાણિ સમૂહના આરબ મમારભ કરે છે. તથા પરિગ્રહ પર મમતા રખે છે. અર્થાત્ પુત્ર ફલત્ર ધન વિગેરેમાં મમત્વ બુદ્ધિ રાખે છે. તે પરિવા सु० ७७
SR No.009306
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages791
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size45 MB
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