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________________ समयावधिनी टीका प्र. थु. अ. १५ आदानीय स्वरूपनिरूपणम् ५११ अन्वयार्थ - - (जस्स) यस्य (पुरे कर्ड) पुरा कृतं पूर्वभवोपार्जितं कर्म (नत्थि ) न भवेत् सः (महावीरे) महावीर : - महापुरुषः (ण मिज्जई) न म्रियते उपलक्षणात् नोत्पद्यते च जन्ममरणान्मुक्तो भवतीत्यर्थः । कथमित्याह-यतः सः (लोगंसि) लोके संसारे (पिया) प्रियाः मनोमोहकत्वाद प्रेमास्पदम् (इत्थिओ) स्त्रियः (अच्चे ) अत्येति अतिक्रामति उल्लङ्घयति परित्यजतीत्यर्थः न ताभिः प्रतिहतो भवतीति भावः । कः कामिव ! इत्याह - (वाउ) वायुः (जालंग) ज्वाला मिवेति । यथा वायुरशि ज्वालामतिक्रम्याग्रे गच्छति न तेन प्रतिहतो भवति तथैव स महावीरः स्त्रीभिः प्रतिहतो न भवति तेन कारणेन जन्ममरणविनिमुक्तो भवति स्त्रीणामेव जन्ममरणयोः कारणकत्वादिति भावः ॥८॥ लोके' जगत् में 'पिया - प्रियाः' प्रेमास्पद ऐली 'इथिओ-स्त्रियः' स्त्रियों को 'अच्चेह - अत्येति' उल्लंघन कर जाता है उन स्त्रियों से पराजित नहीं होता है जैसे 'वाउ - वायुः' वायु 'जालंब - ज्वालामिव' अग्नि की ज्वालाको उल्लंघन करजाते हैं अग्नि से पराजित नहीं होता है ऐसा ही वह महावीर पुरुष स्त्रियों से पराजित नहीं होता है ॥८॥ अन्वयार्थ - जिसके पूर्वकृत कर्म शेष नहीं हैं, वह महावीर पुरुष मृत्यु को प्राप्त नहीं होता अर्थात् जन्म मरण से छूट जाता है। क्यों कि संसार में प्रेमास्पद स्त्रियों को वह त्याग देता है । अर्थात् उनसे पराभूत नहीं होता । जैसे वायु ज्वाला को उल्लंघन करता है । तात्पर्य यह है कि जैसे वायु अग्नि की ज्वालाओं को लांघ कर आगे घढ जाता है, उससे प्रतिहत नहीं होता, उसी प्रकार महावीर पुरुष स्त्रियों से प्रतिहत नहीं होता, अतएव वह जन्म और भरण से सर्वथा मुक्त हो जाता है, क्योंकि स्त्रियां ही जन्म और मरण का कारण हैं ॥ ८ ॥ प्रियाः ' प्रभास्य मेषी 'इत्थिओ - स्त्रियः' मे स्त्रिये, थी पराकृत थते। नथी प्रेम 'वाउ - वायुः' वायु 'जाल - ज्वालामिव' अग्निनी ज्वासाने उस धन पुरी જાય છે અગ્નિથી પરાજીત થતે નથી, એજ રીતે એ મહાવીર પુરૂષ અચેાથી પરાજીત થતા નથી. ૫૮ાા અન્નયા —જેના પહેલાં કરેલ કર્મી ખાકી નથી. તે મહ'વીર પુરૂષ મૃત્યુને પ્રાપ્ત થતા નથી અર્થાત્ જન્મ, મરણથી, છૂટી જાય છે કેમકેસંસારમાં પ્રેમ સ્પદ સ્ત્રિયાના તેએ ત્યાગ કરે છે અર્થાત્ તેનાથી પરાભવ પામતા નથી જેમ વાયુ જ્વાલાનું ઉલ્લંઘન કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે—જેમ વાયુ અગ્નિની જવાલાઓને ઉલ્લધીને આગળ વધી જાય છે. તેનાથી પ્રતિહત થતા નથી. તેથી જ તે જન્મ અને મરણથી સથા છૂટિ જાય છે, કેમકે અિયા જ જન્મ અને મરણનુ કારણ છે. દ્રા
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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