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________________ કચ્છ सूत्रकृतागसूत्रे वादिनः सदेव सूर्यादि समस्तं जगन् नैव पश्यति, तत्र को दोपोऽस्माकम्, यथासन्तमपि सूर्यमूलूको न पश्यति तत्र को दोपोऽस्माकं सूर्यस्य वेति भावः ॥८॥ पुनरपि तन्मतं खण्डयितुमाह-संवच्छर' इत्यादि । मूलम्-संवैच्छरं सुविणं लकवणं , लिमितं देहं च उप्पाइयं च। अटुंगमेयं वहने अहिता, लोगसि जाणंति अणागताई ॥९॥ छाया-सांवत्सरं स्वप्नं लक्षणं च,-निमित्तं देहं चौत्पातिकं च । अष्टाङ्गमेतद् बहवोऽधीत्य, लोके जानन्त्यनागतानि ।।९।। विद्यमान सूर्य आदि समस्त जगत् को नहीं देख पाते हैं। अगर उलूक विद्यमान सूर्य को नहीं देखता तो इसमें हमारा या सूर्य का क्या अपराध है ? उसी प्रकार अगर अक्रियावादी प्रत्यक्ष जगत् को भी नहीं देखते तो हम या दूसरा कोई क्या करे | ॥८॥ पुनः अक्रियावाद का खण्डन करते हैं-'संवच्छर' इत्यादि । शब्दार्थ-संवच्छर-संवत्सर' सुभिक्ष अथवा दुर्भिक्षको यतानेघाला ज्योतिः शास्त्र१, 'सुविणं-स्वप्नम् शुभ अथवा अशुभ स्वप्न के फल को बताने वाला स्वप्नशास्त्र (२) 'लक्खणं च-लक्षणं च' आन्तर और बाह्य लक्षण से फलको बताने वाला शास्त्र (३) 'निमित्तं-निमिसम्' शुभाशुभ शकुन आदि से फल को बताने वाला निमित्तशास्त्र પણ વિદ્યમાન સુર્ય વિગેરે સઘળા જગતને દેખી શકતા નથી. જે ઘુવડ વિદ્યમાન સૂર્યને ન દેખે તે તેમાં અમારે કે સૂર્યને શું અપરાધ છે? એજ પ્રમાણે જે અક્રિયાવાદિયે પ્રત્યક્ષ એવા આ જગતને ન પણ દેખે તે અમે અથવા અન્ય કેઈ શું કરી શકીએ? તે તેઓની દષ્ટિને જ દોષ છે. ૫૮ । शथी मठियावानु उन ४२di ४९ छे ४-'संवच्छर' त्याल शहा-'संवच्छर-संवत्सरं सुण अथवा हुने मत पाणु च्याति:शा (१) सुविणं-स्वप्नम्' सा२। अथवा मम २५जना ने मता• वापाणु नशा (२) 'लक्खणं च-लक्षणं च' मरना तथा साना सक्षशायी ५० मतापापाणु शास्त्र (3) 'निमित्त-निमित्तम्' शुभ अथवा अशुभ
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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