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________________ ६०६ सूत्रकृतान 1 घृतादीनां प्रक्षेपे देवास्तुष्यन्ति तदपि न युक्तम्, यदि देवानां मुखमि स्तदा यथा तत्र प्रक्षिप्तान् घृतादीन् देवा भक्षयन्ति, भक्षयिष्यन्त्येवाऽशुचिपदार्थानपि मुखे अग्नौ प्रक्षि-तान्। ततो मन्ये कुपिताः भवेयुः । किंचाऽसंख्याता देवाः बहूनां मुखैकेन भोजनं न सम्भाव्यते, इत्यं क्वाप्यत्वात् । कथमेकेनमुखेन पदार्थान् भुजेरन्निति । तस्माद्याज्ञिकानां मलापोऽयम् यदनौ - प्रक्षेपान्मुक्तिरिति ॥ १८॥ . C जैसे वैदिक 'अग्निकर्म करते हैं, उसी प्रकार वे भी करते -दोनों में समानता है । 'अग्निमुखा वै देवाः' अर्थात् देवों का मुख अग्नि है, इस कथन के अनुसार अग्नि में घृत आदि का प्रक्षेप करने से देवों की तुष्टि होती है, यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। यदि देवों का मुख अग्नि है तो अग्नि में प्रति किये हुए घृत आदि का देव भक्षण करते हैं, उसी प्रकार अग्नि में प्रक्षिप्त अशुचि पदार्थों का भी वे भक्षण करेंगे ! ऐसा करने से वे कुपित भी हो जाएँगे ! इसके अतिरिक्त देव असंख्यात हैं। बहुतेरे देवता एक ही मुख से भोजन करें, यह संभव नहीं है। ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाना । आखिर एक ही सुख से अनेक देव किस प्रकार पदार्थों को खाएँगे ? अतएव अग्नि में प्रक्षेप करने से मुक्ति होती है, यह याज्ञिकों (मीमांसकों) का प्रलाप मात्र ही है ॥ १८ ॥ જેવી રીતે વૈદિક ધર્મને માનનારા લેક અગ્નિકમ કરે છે. એજ પ્રમાણે तेथेो (लार आदि) या रे छे. तेथी मन्नेमां समानता, छे, 「 'अग्निमुखा वै देवाः ' - भेटते है, 'हेवानुं भुख अग्नि छे,' या उथन અનુસાર અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી, દેવાની તુષ્ટિ થાય છે (हेवेो तृप्न थवाथी रीजे है), मा उथन पायु, युक्तियुक्त सागतुं नथी. ले દેવોનું મુખ અગ્નિ હાય, તે જેવી રીતે અગ્નિમાં નાખવામાં આવેલ શ્રી આદિનું દેવે ભક્ષણ કરે છે, એજ પ્રમાણે અગ્નિમાં હામવામાં આવેલ અશુચિ (अशुद्ध) पार्थोनु य] तेथे लक्षणु उरता इथे ! येवु श्वाथी तेथे पायમાન પણ થતા હશે ! વળી દેવો તે અસ`ખ્યાત છે. તે અસખ્યાત દેવો એક જ સુખ વડે ભેાજન કરતા હાય, એવુ સ ́ભવી શકે નહી. એવુ કયાંય જોવામાં આવ્યુ' નથી. એક જ મેાઢા વડે અનેક દેવો કેવી રીતે પદાર્થોને ખાતા હશે? તેથી એવું માનવુ' પડશે કે ‘અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી મેાક્ષ भजे छे,' भेत्री याज्ञिसेनी (भीमांसानी ) मान्यता मेरी नथी या मिथ्या મલાપ રૂપ જ છે. ગાથા દ્વા
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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