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________________ **** ५८५ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् - अन्वयार्थ :- (ह) इडास्मिन् लोके (एगे) एके केचन (मूहा) मूढाः - विवेकत्रिकलाः (आहारसं पज्जणचज्जणेणं) आहार संपज्ञ्जननवर्जनेन - लवणत्यागेन (मोक पत्रयंति) मोक्षं प्रवदन्ति कथयन्ति (एगे य) एके च केचन मूर्वाः सदसद्विवेकfreer: (सीओदगवणेण ) शीतोदक सेवनेन मोक्षं प्रवदन्ति तदा ( एगे) एके केचन ( हुएण) हुतेन - होमकरणेन (मोक्खं पवयंति) मोक्षं प्रवदन्ति इति ॥ १२ ॥ टीका- 'इद' मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे 'एगे' एके केचन अज्ञातशास्त्रतत्वज्ञाः 'पूढा' सूर्वा:- सदसद्विवेकविकला: ' आहार संपज्ञ्जणवज्जणेणं' आइरसंज्ञ्जननवर्जनेन, आहियते वृत्यैइति आहारः ओदनादिः अभ्यवहरणीयं वस्तुजातम् तस्याऽऽहाऽस्य संपत्रसहिता पुष्टिं जनयति इति आहार अन्वयार्थ - इस लोक में कोई कोई मूड जन नमक खाना स्थागदेने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं । कोई अज्ञानी शीत सचित्त जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं और कोई अविवेकी होम करने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं ॥१२॥ No टीकार्थ - मोक्षगमन के अधिकारी इस मनुष्यलोक में शास्त्र : के तत्व से अनभिज्ञ एवं सत्-असत् के विवेक से हीन कोई कोई लोग नमक का त्याग कर देने से मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं । मूल गाथा में लवण के लिए 'आहारसंपजणण' शब्द का प्रयोग किया है । उसका अर्थ यों है-तृप्ति के लिए जो ओदन आदि का आहरण ग्रहण किया जाता है, वह आहार कहलाता है। उस आहार की संपत् अर्थात् रस पुष्टि को जनन- उत्पन्न करनेवाला 'आहार संपज्जनन' कहलाता है। नमक सूत्रार्थ - - पासोमा अ अ सोई। मेवु छे भीहाने त्या કરવાથી મેાક્ષ મળે છે, તેા કેાઇ અજ્ઞાની જીવ એવું કહે છે કે સચિત્ત શીતળ જળના સેવનથી મેક્ષ મળે છે, તે કાઈ અવિવેકી લેકે એવું કહે છે કે હૈામ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ।૧૨। ટીકામાક્ષગમનના અધિકારી એવા આ મનુષ્યàાર્કમાં, ` શાસ્ત્રના તત્ત્વથી અનભિજ્ઞ અને સત્-મસા વિવેકથી વિહીન કાઇ કાઇ પુરુષ એવુ’ કહે છે કે મીઠાના ત્યાગ કરવાથી મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. મૂળ ગાથામાં 'सवष्णु' ने भाटे 'आहार संपन्चणण' पहने। प्रयोग श्वामां भाव्यो छे तेना અ આ પ્રમાણે થાય છે-તૃપ્તિને માટે જે ભાત આદિ ખાદ્ય પદાર્થોં લેવામાં આવે છે, તેમને આહાર કહે છે. તે આહારની સ'પત એટલે કે તે આહારના स्वाह (रस)नी पुष्टि १२नारा पहार्थने 'आहार - सम्पज्जनन' महार सभ्यत् सू० ७४
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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