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________________ . . . . . . . . . सूत्रकृताशक्त्रे ___अन्वयार्थः--जे असं नए) यः असंयता-गृहस्थः, (आयसाए) आत्मसाताप आत्मसुखाय (बीयाइ हिंसइ) वीजानि हिनस्ति-विराधयति, त्था (जाईच बुद्धिं च विणासयंते) जातिम् अंकुरादीनानुत्पत्ति तथा तेपामेव वृद्धि विनाशयन् (आय. दंडे) आत्मदण्डः स्वात्मन एव दण्डको भवति, (लोए से अणज्जधम्मे अहाहु) लोके स अनार्यधर्मा अथ इति आहु उक्तवन्तः तीर्थकरा इति ॥९॥ 'जाइं च बुद्धि च' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे असंजए-यः असंयत्ताः' जो असंयत्री पुरुष 'आयसाए-आस्मलाताय' अपने सुख के लिये 'वियाइ हिलइ-बीजानि हिनस्ति' बीज का नाश करता है तथा 'जाइं च बुडिंच धिणालयंते-जातिम् च वृद्धिं च विनाशयन्' अंकुर की उत्पत्ति तथा वृद्धि का विनाश करता है 'आयदंडे-आत्मदंडः' वस्तुतः वह पुरुष उस पापके द्वारा अपने आत्मा को ही दण्ड देनेवाला बनता है 'लोए से अणजेधम्मे अहाहुलोके रस अलार्यधर्मा अथाहुः तीर्थकरों ने उसे इस लोक में अनार्य धर्म वाला कहा है।९॥ ____ अन्वयार्थ-जो असंयमी पुरुष अपने सुख के लिए बीजों का हनन करता है, वह बीज की उत्पत्ति और वृद्धि का विनाश करता हुआ अपनी आत्मा को दंडित करता है । तीर्थकर ऐसे पुरुष को अनार्य धर्मी कहते हैं। : 'जाई च वुइढिं ' छत्याहि शा-'जे असंजए-यः असंयतः' २ सयभी ५३५ 'आयसाएआत्मसाताय' पाताना सुभ भाट 'वियाइ हिंसइ-वीजानि हिनस्ति' भी ना नाश ४२. 'जाईच वुदि च विणासयते-जातिम् च वृद्धिं च विनाशयन्' भनी पत्ति तथा वृद्धिना विनाश ४२ छ. 'आयडे-आत्मदहा वास्तवि: शत मेवा ५३५ xत: पान ६२५- पाताना मामाने ०४ हेना।.मन छ: 'लोए से श्रणजधम्मे अहाहु-लोके स अनार्यधर्मा अथाहुः' तीथ । सान सा Avi अनार्य धर्मवाणा ४९ छ.. .. ... . .. - સૂવાર્થ-જે અસંયમી પુરુષ પિતાના સુખને માટે બીજને ઘાત કરે છે, તે બીજની ઉત્પત્તિ અને વૃદ્ધિને પણ વિનાશે કરતે થકો પિતાના આત્માને જ દંડિત કરે છે. તીર્થકરોએ એવા પુરુષને અનાર્થધમી ४ो छ. ॥६॥ " . . . . . . . . : :
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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