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________________ ३०२ सूत्रकृतांगसूत्रे दुःखविशेषान् उम्पादयन्ते । नाकपालास्तान् नारकजीवान् पीडयन्ति, यतः कृतकर्मणां । कदाचिदपि फलोपभोगमन्तम न ततो विमुक्ता भवन्तीति भावः॥१९॥ मूलमू-ते हम्नमाणाणरगे पंडंति पुन्ने दुरुत्रस्त महाभितावे। ते तत्थ चिंट्रति दुरूवभक्ती तुटूंति कम्मोरगया किमीहि।२०। छाया-ते हन्यमाना नर के पतन्ति पूर्ण दूरूपस्य महाभितापे । ते तत्र तिष्ठति दूरूपमक्षिणः त्रुटय ते कर्मोपगताः कृमिमिः ॥२०॥ देकर उसी प्रकार के उनके द्वारा अन्य प्राणियों को दिये गये दंड की याद दिलाते हैं। क्योंकि अपने किये कर्मों का फल भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं पाते हैं ॥१९॥ शब्दार्थ--'हम्ममाणा ले-हन्यमानास्ते' पनमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते दे नारकि जीव 'महाभिनावे-लहाभिता महाल कष्ट देने वाले 'दुवस्व पुष्णे-दूरूपेण पूर्ण विष्टा और सूत्र से पूर्ण 'नरएनरके' दूसरे नरक में पति-पतन्ति' गिरते हैं 'ते तत्थ-ते तत्र' वे वहां 'दुस्वभावी-दूरूपमक्षिणा' विष्टा, सून आदि का पक्षण करते हुए 'चिति-तिष्ठन्ति' चिरकाल तक निवास करते हैं 'मम्मोवगयाकोपगता:' स्वकृत कर्म के वशीभूत होकर 'किमीहि-कृमिभिः' कीड़ों के द्वारा 'तुति-चुड्यन्ते पीड़ित होते हैं ॥२०॥ સ્મરણ કરાવે છે તે તેમને જે પ્રકારનો દંડ દે છે, એજ પ્રકારનો દંડ તેમણે (નારકેએ) પૂર્વ જન્મમાં અન્ય જીવોને દીધું હતું, એ વાતનું તેઓ તેમને સમરણ કરાવે છે, કેમકે નાક જ તેમણે પૂર્વભવમાં કરેલા કર્મોનું ફળ ભેગવ્યા વિના નરકનાં દુઃખેમાથી છુટકારો પામી શકતા નથી. ૧૯લા शा---'हम्ममाणा ते-हन्यमानास्ते' ५२भाधामियाना द्वारा भारकामा माता त ना२४ी 'महाभिनादे-महाभितापे' महान् ४ देशवाणा 'दुस्वस्त पुण्णे-दूसपेण पूर्ण' 421 मने भूत्रथा पूर्ण 'नर-नरके' भीत न२मा 'पति-पतन्ति' ५ छे 'ते तस्य-वे तत्र' ते त्यां 'दुरूवभक्खी-दरूपभभिगः' विष्टा, भूत्र विगेरेनु साक्षय ४२ता 'चिटुंति-तिष्ठन्तिः' aint tण सुधी निवास ४२ छ. 'कम्मोवगया-क्रमागता' २१४न ४मना वशीभूत धने 'किमिहि-कृमिभिः' । दास 'तुटुंति-त्रुटयन्ते' पीडित थाय छे. ॥२०॥
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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