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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २२९ सम्यग्प्रवजितः तत्र अवायसंभवात् एकाकी च्यादिसंकलितगृहस्थगृहं गत्वा धर्म नोपदिशेत् । यदि कदाचिदुपदिशेत्तदा तद्गृहमगत्वैव उपाश्रये एव पुरुषसाक्षिकं वैराग्यमधानकं धर्ममुपदिशेत् इति ॥११॥ विषमोऽप्यर्थ:-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनः प्रतिपादितो वोधाय सुलभो भवतीति-अभिप्रायवान् सूत्रकार आह-'जे एवं उछ' इत्यादि । मूलम्-जे एयं उछ अणुगिद्धा अनियरा से हंति कुसीलाणं। सुतंवस्सिएवि से भिक्खू 'नो विहरे संह नमित्थीसु॥१२॥ छाया--य एतदुन्छमनुगृद्धा अन्यतरे ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि समिक्षुः न विहरेत् सार्थ खलु स्त्रीभिः ॥१२॥ नहीं करना चाहिए । कदाचित् उपदेश दे तो उसके घर न जाकर ही अन्य पुरुष की विद्यमानता में उपाश्रय में ही वैराग्य प्रधान धर्म का उपदेश करे ॥११॥ कोई विषय दुर्गम हो तो भी अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अर्थात् विधि रूप से और निषेध रूप से प्रतिपादन करन्द ले सुगम हो जाता है। इस अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं--'जे एवं उर्छ' इत्यादि । शब्दार्थ--'जे-थे जो पुरुष एवं-एतत्' इसी स्त्री संसर्गरूपी 'उछउछम्' त्याज्य-नींदनीय कर्म में 'अणुगिद्धा-अनुशृद्धा!' आसक्त है 'सेते' वे पुरुष 'कुसीलाणं-कुशीलानाम्' पार्श्वस्यादिकों में से 'अन्नयर-अन्यतरे कोई एक हैं अतः 'ले-स' वह साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतपः એકાન્તમાં ઉપદેશ આપ જોઈએ નહીં. તેણે ઉપાશ્રયમાં અન્ય પુરુષની સમક્ષ જ સ્ત્રિઓને વૈરાગ્યપ્રધાન ધર્મને ઉપદેશ આપ જોઈએ ૧૧ કેઈ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવાનું કાર્ય દુષ્કર હોય, તે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા એટલે કે વિધિ રૂપે અને નિષેધ રૂપે તેનું પ્રતિપાદન કરવાથી તે વિષય સગમ થઈ જાય છે તેથી જ સૂત્રકાર હવે આ પદ્ધતિનો આશ્રય , सपन ४ छ है- 'जे एयं उंछे' त्याह-- Aval -'जे-ये' रे ५३५ 'एयं-एतत्' ! श्री सा३पी छंउम्छम्' नीहनीय भाभा अणुगिद्धा-अणुगृद्धाः' यासरत . 'से-ते से ५३षो 'कुसीलाण-शीलानाम्' पावस्थ विगेरेमाथी 'धन्नयरा-अन्यतराः' हो से छे. तेथी 'से-स.' ते साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतस्विकोऽपपि' उत्तम तपस्वी
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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