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________________ सूत्रकृतासूत्रे ध्यवस्थिताः। ते हि अनुठूलोपसगैः महाहंदवत् क्षोभरहिता भवन्ति । अन्ये तु विष याभिलापिणो ललनादिपरीपहेजिताः संसारे अङ्गारपतितमीनवद् रागाग्निना दामाना अवतिष्ठन्ते इति ॥१७॥ . . . . . . ये ललनापरीषहेण पराजिताः तेषां कीदृशं फलं भवतीति दर्शयितुं सूत्रफार उपक्रमते-'एए.ओघ' इत्यादि। . . . मूलम्-एएं ओघ तरिस्तंति समुदं ववहारिणो। :- जत्थ पाणा विर्सनासि किञ्चती सर्यकम्मुणा ॥१८॥ ' छाया-एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्र व्यवहारिणः । - - - यत्र प्राणा विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते स्वककमणा ॥१८॥ रहते हैं । जो इनसे विपरीत वृत्तिवाले क्षुद्र पुरुष होते हैं विषयों के. अभिलाषी और स्त्री परीषह आदि ले पराजित होते हैं और परिणामतः अंगार में पडे हुए मीन की तरह संसाररूपी अंगार से जलते रहते हैं।॥१७॥ - जो स्त्री परीषह से पराजित होते हैं, उन्हें किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'एए ओघं' इत्यादि। : शब्दार्थ--'एए-एते' अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतनेवाले ये पूर्वोक्त संयमी पुरुष 'ओघं-ओघं' चातुतिक संसार को 'तरिस्संति-तरिष्यन्ति' पार करेंगे जैसे 'सत्रुई-झामुद्रम् ' समुद्रको 'चवहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापार करनेवाले वणिकूजन पार करते हैं 'जरंथ-यत्र' जिस संसार में विसनासि-विषण्णासन्ता' पडे हुए 'पाणाप्रोणा' प्राणी-जीव 'सयकम्नणा-स्वककर्मणा' अपने कर्मों के बलसे "किच्चंति- कृस्यन्ते' पीडित किये जाते हैं ॥१८॥ સિમીને સ્થિર રહે છે. પરંતુ જે પુરુષે તેમના કરતાં વિપરીત વૃત્તિવાળા હોય છે, તેઓ વિષમાં આસક્ત રહે છે. એવા પુરુષ સ્ત્રી પરીષહ આદિ દ્વારા પરાજિત - થાઇ છે. તેને પરિણામે તેઓ અંગારમાં પડેલ માછલાની માફક સંસારરૂપી शा२१ १ ४ाता २७, छे. ॥१७॥ . - જે ક્ષુદ્ર પુરુષે પરીષહ દ્વારા પરાજિત થાય છે તેમને કેવું ફલ लागवतु ५ छ, त सूत्र५२ वे 2. छ- 'एए ओघ' त्याहि. २... हाथ-'एए-एते' अनुण भने प्रति पनि तापमा भूत संयमी ५३५ :-'ओघं-ओघं' यार गतिवाणास सारने तरिस्संति-तरिष्यन्ति'. पा२ ४२ वी रीत 'समुई-समुद्रम् समुद्रने 'ववहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापा२ ४२4141वान पा२ ४२ छ, जत्थ-यत्र' संसारमा 'विसन्नासिविषण्णाः सन्तः ५ पाणा-प्राणा' आ-04 'सयकम्मुणा-स्वकर्मणा' घोताना ना मणथी : किच्चंति:त्यन्ते' मि ४२वामां आवे छे. ॥१८॥ rur
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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