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________________ ६१६ आचारानपत्रे विहिंसन्ति । तथा हि- अनुकूलशब्दश्रवणार्थी वेणुवीणापटहादिवाद्यानि निर्मातुं बहुविधान् वनस्पतीन् विनिहन्ति । प्रियरूपविलोकनार्थी काष्ठमययुत्रतिप्रतिमा-गृहतोरण- वेदिका स्तम्भादि रचयितुं कविचन वनस्पतीन् विनिकृन्तति । एवं घ्राणसुखार्थी कर्पूर- केतकी - पाटल-लबङ्ग-सरम चन्दना - गुरु- केसर- जाती फल-जातीपत्रिकादीन् परिग्रहीतुं विविधान वनस्पतीन् विहिनस्ति । रसास्वादमुखार्थी मूलकन्दादिगतान संख्याताननन्तान वा जीवानुपमर्दयति । एवं स्पर्शसुखाभिलापी च कमलदलमृणालकदलीदलवल्कलानुकूलदुकूलतृलादीन् परिग्रहीतुं नानाविधवनस्पतीनां प्राणव्यपरोपणं प्रकरोति । बहुत हिंसा करते हैं । जैसे- अनुकूल शब्द सुनने का अभिलापो पुरुष वेणु, बीणा, पटह (ढोल) आदि वाद्य बनाने के लिए नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा करता है । प्रियरूप देखने का इच्छुक युवती की काष्ठमय प्रतिमा, गृह, तोरण, वेदिका, और स्तंभ बनाने के लिए वनस्पति को काटता है । इसी प्रकार प्राणेन्द्रिय के सुरुका लेप कपूर, केतकी, पाटल, (गुलाब) लोंग, सरस चन्दन अगर, केसर, जायफल, जायपत्री आदि के उद्देश्य से विविध प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों को हिंसा करता है । रसास्वाद का अनुरागी मूल आदि कन्दों में रहने वाले असंख्यात और अनन्त जीवों को हिंसा करता है । इसी प्रकार स्पर्श-सुख का अभिलाषी कमल के पत्ते, कमल की दंडी, केले के पत्ते छाल और अनुकुल वस्त्र तथा रुई प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के वनस्पति जीवों का प्राण लेता है । 3 ઘણીજ હિંસા કરે છે. જેમ-અનુકૂલ શબ્દ સાંભળવાના અભિલાષી પુરુષ વેણુ-વીણા, ઢાલ આદિ વાદ્ય-વાજિત્ર બનાવવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયના જીવાની હિંસા हुरे छे, प्रियरूप लेवाना युवतीनी अष्ठभय प्रतिभा, गृह, तोरण, वेहि અને સ્તંભ અનાવવા માટે વનસ્પતિને કાપે છે. એ પ્રમાણે ઘ્રાણેન્દ્રિય (નાસિકા)ના सुमना सोलुप -बाल उयूर, हैतडी गुलाम, सर्वांग, सरसचंदन, अगर सर, જાયફળ, જાવંત્રી આદિ મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી વિવિધ પ્રકારના વનસ્પતિકાયિક જીવાની હિંસા કરે છે. રસાસ્વાદના અનુરાગી જીવ મૂળ આદિ કūમાં રહેવાવાળા અસંખ્યાત અને અનન્ત જીવાની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે સ્પર્શસુખના અભિલાષી જીવ કમલપત્તાં, કમલકાકડી, કેવળનાં પત્તાં, છાલ અને અનુકૂલ વસ્ર તથા રૂ પ્રાપ્ત કરવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિ જીવેાના પ્રાણ લે છે.
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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