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________________ ५३० भाचाराचे दृश्यन्ते च तीर्थादिपु अधःकर्मादिदोपदपितभक्तपानादिग्रहणेनाप्कायादिमहासमारम्भ कुर्वाणाः । न च ते स्वात्मानं भवसागरातारयितुं समर्या भवन्ति, उक्तत्र-भगवतीचराध्ययनसूत्रे-(अध्य. २०) . "चिरंपि से मुंडरुई मवित्ता, अधिरचए तवनियमेहि महे। .. चिरंपि अप्पाण किलेसइना, न पारए होह हु संपराए" ॥ सू० ११॥ न केवलं ते हिंसादोपभागिनः, अपि त्वायदोपमागिनोऽपि सन्ति, तदेव भगवानाह-'अदुवा.' इत्यादि । अदुवा अदिनादाणं । सू० १२ ॥ छाया- . अथवा अदत्तादानम् ॥ सू०१२ ॥ तीर्थ आदि पर आधाकर्म आदि दोषों से दूपित आहारपानी ग्रहणकरके अप्कायका महारंभ करते हुए देखे जाते हैं । वे अपने आत्मा को भवसागर से तारने में समर्थ नहीं हैं । भगवान् ने उत्तराध्ययनसूत्र (अध्ययन २०) में कहा हैं "जो पुरुष अस्थिर व्रत वाला है और तप तथा नियमों से भ्रष्ट है वह चिरकाल तक अपने आत्मा को क्लेश पहुँचाने पर भी संपराय (संसार से ) पार नहीं हो - चकता" (उत्त. स. २०)। सू० ११ ॥ सचित्त जल का आरंभ करने वाले अकेली हिंसा के ही भागी नहीं हैं, किन्तु अन्य दोपों के भागी भी हैं । यही बात भगवान् कहते हैं:-'अदुवा.' इत्यादि । मूलार्थ अथवा अदत्तादान का दोष लगता है । मू० १२ ॥ તીર્થ આદિ પર આધાકર્મ આદિ દોથી દૂષિત આહાર-પાણી ગ્રહણ કરીને અપકાયને મહારંભ કરતા હોય એમ જોવામાં આવે છે. તે પિતાના આત્માને ભવસાગરથી तापामा समर्थ नथी. सवान-उत्तराध्ययन सूत्रमा (अध्ययन २०भां) घुछ हैं: જે પુરુષ અસ્થિર વ્રતવાળા છે અને તપ તથા નિયમથી ભ્રષ્ટ છે, તે લાંબા સમય સુધી પોતાના આત્માને કલેશ પહોંચાડવા ઉપરાંત પણ સંસારથી પાર થઈ शता नथी." (उत्तरा० म. २०) (सू. ११) સચિત્ત જલને આરંભ કરવાવાળા એકલી હિંસાનાજ ભાગી નથી પરંતુ અન્ય होचोना ला छ. ते पात लगवान ४ छ-'अदुवा. त्याहि. असाथ-मया महत्ताहानना होप लागे छ. (सू. १२) . .
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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